चोरी और ऊपर से सीनाजोरी शायद इसी को कहते हैं। भ्रष्टाचार की गंदगी से लोकतंत्र की संसद रूपी गंगा को गंदे नाले में बदलने वाले और उनके सहयोगी, बजाए अपने कुकृत्यों पर शर्मिंदा होकर चुल्लू भर पानी में डूब मरने का उपाय करने के मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन में नुक्स निकालने और उस पर रोक लगाने की मांग करने में लगे हुए हैं। क्या हो जाएगा स्टिंग ऑपरेशनों पर रोक लगा देने से? क्या लोकतंत्र का चीर-हरण कराने और करने वाले ये दुर्योधन और दु:शासन अपनी रगों में दौड़ते भ्रष्टाचार के काले रक्त को बदलकर वाल्मिकी बन जाएंगे?
कौन नहीं जानता है कि आज भारत की रग-रग को भ्रष्टाचार का घुन खोखला कर चुका है। वह चाहे नेता हो, अधिकारी हो, पुलिस हो या पूंजीपति हों। जिसे जब अवसर मिलता है, बिना देश, समाज और अपने 'धर्म' की परवाह किए वह भ्रष्टाचार की बहती गंगा में न सिर्फ हाथ धो रहा है बल्कि नंगा होकर डूबकियां लगा-लगाकर नहाने में लगा हुआ है। एक जमाना था जब लोग समाज में अपनी बदनामी से भय खाते थे। बदनामी का कलंक सह न पाने के कारण कई लोग आत्महत्या तक कर लेते थे। मगर अब बदनामी में भी नाम होगा की मानसिकता चारों और फैल चुकी है। पैसा और रसूख आज आदमी के हर ऐब और बुराई पर हावी हो जाता है। और हमारा समाज इस रसातल पर पहुँच गया है कि वह पैसे और रसूख वाले आदमी की काली करतूतों की पूरी जानकारी के बावजूद उसकी जी-हजूरी करने और तलुए चाटने में लगा रहता है।
समाज की इसी रीढ़विहीनता और नैतिक रूप से पूरी तरह से खोखले हो जाने का परिणाम है कि कैमरे के सामने संसद में प्रश्न पूछने के लिए और सांसद निधि से सहायता देने के लिए कमीशन और घूस लेते हुए सारी दुनिया के सामने दिखायी देने के बावजूद ये दुर्योधन और उनके सहयोगी दु:शासन बजाए अपनी करतूतों के शर्मिंदा होने के पूरी बेशरमी के साथ मीडिया के खिलाफ कार्यवाही करने की माँग कर रहे हैं। इन लोगों को अपने भीतर रग-रग में बसी हुई गंदगी से कोई परहेज नहीं है, शर्म नहीं है। इनकी तकलीफ सिर्फ यह है कि उस गंदगी पर से मीडिया ने परदा क्यों हटा दिया। ये लोग भारत के महान लोकतंत्र की बगिया को अपनी बदबू से नर्क बना देने वाली इस भ्रष्टाचाररूपी गंदगी को साफ नहीं करना चाहते हैं, ये सिर्फ इतना चाहते हैं कि इस गंदगी पर ढके हुए कपड़े को कोई हटाकर उजागर न कर दे।
इसमें कोई शक नहीं है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए आज टीआरपी का प्रश्न सर्वोपरि है। यह भी संभव है कि आपरेशन दुर्योधन और आपरेशन चक्रव्यूह के आयोजन के पीछे मूल प्रेरणा देशहित न होकर व्यावसायिक हित हों, मगर क्या इससे यह सच्चाई झूठ में बदल जाती है कि इस देश के कर्णधार संसद में जनहित के लिए सवाल उठाने के अवसर का उपयोग भी पैसा बनाने के लिए कर रहे हैं? क्या इससे यह सच छुप जाएगा कि अपने संसदीय क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए मिलने वाले पैसों में भी कुछ लोग कमीशनखोरी कर रहे हैं?
यह ठीक है कि किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे की निजता में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। मगर मीडिया द्वारा उजागर किये गए इन दो मामलों में निजता का सवाल कहाँ उठता है? फिर तो रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों पकड़े जाने वाला व्यक्ति भी सीबीआई के खिलाफ यही दलील दे सकता है। अघोषित सम्पत्ति को उजागर करने गयी आयकर विभाग की टीम को भी कोई व्यक्ति निजता की दुहाई देकर रोक सकता है।
मगर इस तरह के एक-दो ऑपरेशनों से कुछ खास परिवर्तन होने की उम्मीद बहुत कम है। भारतीय जन-मानस का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसकी अपनी याददाश्त का बहुत कमजोर होना है। भारतीय जनता बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाती है। अच्छाई भी और बुराई भी। यही वजह है कि एक ओर देश को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले कालांतर में दर-दर की ठोकरें खाते हुए नज़र आते हैं और पाप, छल-बल के द्वारा या अपराध करके रुपया, सत्ता और प्रतिष्ठा हासिल करने वाले पूजे जाने लगते हैं। आधुनिकता की होड़ में जिस तेजी से हम अपने संस्कारों को कचरे की टोकरी में डाल रहे हैं, उसका ही यह परिणाम है कि हमसे ही शक्ति पाने वाले भस्मासुर आज हमारी ही जान के पीछे पड़े हुए हैं। इस सच को हम जितना जल्दी समझ लेंगे, उतना हमारे लिए, हमारे परिवार के लिए, समाज के लिए और देश के लिए अच्छा होगा।
जिनकी आत्मा में तनिक भी चेतना बाकी है उनके दिलों में आपके जैसा ही आक्रोश है. बाकी बेहया समाज की चिता की लकड़िया जोड़ने में लगे है.
जवाब देंहटाएंशशि सिंह