रविवार, नवंबर 30, 2008

मुंबई का मंतव्य

मुंबई में हाल ही में हुए आतंकवादी हमले के ढाई दिनों में जो कुछ भी
हुआ, उससे क्या निष्कर्ष निकलता है? शायद देश के अधिकांश लोग
इस बात से सहमत न हो, मगर विडंबना यह है कि सच किसी सहमति
का मोहताज नहीं होता और दुर्भाग्य से कटु सत्य यह है कि इन ढाई
दिनों के दौरान हर स्तर पर हमने अपरिपक्वता का प्रदर्शन किया है।

हर मामले को वोट के नजरिये से देखने वाले हमारे नेता, इस देश का
नेतृत्व करने के लायक नहीं हैं, यह किसी को कहने की आवश्यकता
नहीं है। देश पर अब तक के सबसे बड़े आतंकवादी हमले के दौरान
हमारे गृहमंत्री किस ब्यूटीपार्लर में बैठकर सज-सँवर रहे थे, यह कोई
नहीं जानता। प्रधानमंत्री अपनी उच्चस्तरीय मंत्रणा बैठक में अपने ही
गृहमंत्री को नहीं बुलाकर अपनी नाराजगी प्रकट करते हैं मगर एक
नाकारा व्यक्ति को अपनी टीम में से बाहर निकालने की हिम्मत नहीं
दिखाते हैं।

जिस समय मुंबई के तीन महत्वपूर्ण स्थानों पर
आतंकवादियों का सामना करते हुए हमारे जवान अपनी जान की बाजी
लगा रहे थे, उस समय विपक्ष छाती ठोककर यह कहने की परिपक्वता
नहीं दिखा पाया कि बाद में हम सरकार की हर कमजोरी की बखिया
उधेडेंगे मगर इस समय हमें पूरी दुनिया को यह दिखा देना है कि हम
एक हैं। वोटों की राजनीति करने वाले विपक्ष को मुँहतोड़ जवाब देने में
सत्तापक्ष ने भी देरी नहीं लगायी और उसके छोटे-बड़े नेता यह कहने की
जगह कि इस समय विपक्ष की किसी भी बात पर प्रतिक्रिया देने का
उचित समय नहीं है, अपनी जबान को धार देकर मैदान में कूद पड़े।

भारत का मीडिया संसार का सबसे अपरिपक्व मीडिया है, यह साबित
करने के लिए किसी नये प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। जिनमें न
देश, दुनिया और समाज की समझ है और न मौके की नजाकत का
ज्ञान, ऐसे लोगों की भीड़ वाला हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस देश की
जगहँसाई का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है।

अपने लोकतंत्र और अनपढ़ जनता की राजनैतिक समझ और
परिपक्वता का हम चाहे जितना ढिंढोरा पीटे, मगर जिस जगह
आतंकवादियों के खिलाफ गंभीर और निर्णायक लड़ाई चल रही हो, हमारे
जवानों की जान की बाजी लगी हुई हो, वहाँ महज तमाशबीन बनकर
भीड़ लगाने वाले और अपनी मूर्खता के कारण सुरक्षाबलों के काम में
अनावश्यक बाधाएं पैदा करने वाले लोग क्या प्रदर्शित या हासिल करना
चाहते थे, यह समझना बहुत मुश्किल है।

हमारी गुप्तचर व्यवस्था, विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल,
उपलब्ध सूचनाओं के सही उपयोग और विश्लेषण की उनकी समझ और
योग्यता- ये सारी बातें अनेकानेक प्रश्नचिह्नों से घिरी हुई हैं।

और सबसे आखिर में, भरे दिल से, हमारे सुरक्षा बल और उनके आका।
वह चाहे मुंबई पुलिस हो, नौसैनिक कमांडो हों या एनएसजी। इस पूरी
कार्यवाही के दौरान जो सिपाही, अधिकारी या सैनिक शहीद हुए हैं,
उनके बलिदान को कम नहीं आँका जा सकता। मगर इसके साथ ही
यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इस पूरे मामले में स्थितियों का
मुकाबला करते हुए विचार और योजना की जगह हड़बड़ी और प्रोफेशनल
अप्रोच के अभाव का ही बोलबाला था।

यह कटु सत्य है। हमारे जवान और युवा अधिकारी वीर हैं, साहसी हैं
मगर उनका नेतृत्व करने वाले उतने योग्य और सक्षम नहीं हैं। कुछ
साल पहले कारगिल युद्ध के दौरान भी यही साबित हुआ था। योजनाबद्ध
ढंग से काम करने की क्षमता के अभाव के कारण ही तब भी हमें बड़ी
तादाद में अपने युवा सैन्य अधिकारियों को खोना पड़ा था।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है मगर इस सच से हम कैसे इंकार करेंगे कि मुंबई
पुलिस के तीन बड़े और महत्वपूर्ण अधिकारी वास्तव में आतंकवादियों
का मुकाबला करने का कोई अवसर पाने से पहले ही अपनी जान से
हाथ धो बैठे। हमारे हजारों सैनिकों पर हाथ की उंगलियों पर गिने जा
सकने वाले आतंकवादी भारी पड़े और ढाई दिन तक अपनी हैवानियत
का नंगा नाच करते रहे।

हमारी गुप्तचर संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर हजारों सवालिया निशान के
बावजूद कोई इस बात की सौ प्रतिशत गारंटी तो नहीं ले सकता कि
तमाम सतर्कता रखकर भी कहीं कोई आतंकवादी घटना नहीं होगी।
आखिर सर्वशक्तिमान अमेरिका भी ९-११ को रोक नहीं पाया था। मगर
यह बात महत्वपूर्ण है कि ऐसी किसी भी घटना का सामना हम किस
कुशलता और परिपक्तवता से करते हैं और उससे सबक लेते हुए भविष्य
में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाते हैं। एक
समाज और एक देश - दोनों ही रूपों में हम भारतीयों ने बार-बार यही
साबित किया है कि अपने पुरातन इतिहास से ही नहीं, हालिया
इतिहास से भी सबक लेना हमें आता नहीं है। वह योग्यता और क्षमता
शायद हमारे खून में ही नहीं है।

सोमवार, नवंबर 03, 2008

हिंदुओं की दुर्दशा की कारण-मीमांसा

कानून कहता है कि जब तक किसी पर आरोप साबित नहीं हो जाएं, उसे
निर्दोष मानना चाहिए। इस कसौटी पर साध्वी प्रज्ञा भी फिलहाल दोषी नहीं
कही जा सकती। इस बात से कोई भी व्यक्ति, जिसके अपने पूर्वाग्रह न हों,
इंकार नहीं करेगा। इस पूरे मामले के पीछे आगामी चुनावों में फायदा उठाने
के उद्देश्य से रची गई कोई गहरी साजिश हो, इस संभावना से भी इंकार
नहीं किया जा सकता। आज हमारी राजनीति का स्तर इतना नीचे गिर गया
है कि देश और समाज पर पड़ने वाले गहरे और दूरागामी प्रभाव की चिंता
किए बगैर क्षुद्र स्वार्थों के लिए इस तरह की हरकत अब असंभव नहीं
लगती। यदि हिंदुओं में आतंकवादी प्रवृत्ति घर करने लगी है तो गंभीरता से
इसके कारणों की मीमांसा की जानी चाहिए, यह बात पिछली बार भी कही
गयी थी। मगर इस तर्क के पीछे किसी भी तरह की आतंकी प्रवृत्ति को,
मानसिकता को बढ़ावा देना, हमारी बहुत बड़ी भूल साबित होगी।

हिंदू संस्कृति (जिसमें सनातन धर्म भी शामिल है) को गहराई से
जानने-समझने वाले इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ जीवन-पद्धति मानते हैं और एक
हिंदू होने के नाते हमें इस बात पर गर्व है और होना भी चाहिए। इसका
सबसे बड़ा कारण यह है कि इसमें जीवन के हर पहलू का गहराई से चिंतन
किया गया है। व्यावहारिक जीवन जीने के सर्वश्रेष्ठ उपायों से लेकर सर्वव्यापी
परमात्मा से एकाकार होने तक का कोई भी विषय ऐसा नहीं है, जिसका
आमूल-शीर्ष विचार इस संस्कृति में ना किया गया हो। शायद यही हमारी
सबसे बड़ी दिक्कत है।

व्यावहारिक जीवन और अध्यात्म - ये दो सर्वथा विपरीत विषय हैं। दोनों के
अपने-अपने नियम और सिद्धांत हैं। एक के नियम और सिद्धांत दूसरे पर
लागू नहीं होते। दोनों को एक साथ साधा नहीं जा सकता। अध्यात्म
सामान्य व्यावहारिक जीवन से बहुत आगे का विषय है। व्यावहारिक जीवन
जीते हुए अध्यात्म के मार्ग पर चलने की तैयारी जरूर की जा सकती है।
लेकिन ऐसा करते समय व्यवहार और अध्यात्म के सिद्धांतों के बीच संतुलन
कायम रखना होता है।

संपूर्ण हिंदू जाति का दुर्भाग्य यह है कि उसे व्यवहार और अध्यात्म के बीच
यह संतुलन साधना नहीं आया। इसके विपरीत उसने इन दोनों के मध्य ऐसा
घालमेल किया कि उसकी स्थिति दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम
जैसी हो गयी। और यह इसके बावजूद हुआ कि भगवद्गीता सदियों से हमारे
देश के चिंतकों और विचारकों का सबसे प्रिय ग्रंथ रहा है। लेकिन गीता को,
भगवान श्रीकृष्ण के एकमेवाद्वितीय उपदेशों को जानने-समझने का हमारा
दृष्टिकोण अंधों के दल द्वारा हाथी को देखने के तरीके के समान रहा। जिस
अंधे के हाथ हाथी का जो हिस्सा आया, उसने हाथी का आकार वैसा ही
समझा। उसी तरह भगवद्गीता के उपदेशों की भी हमने अपनी-अपनी रुचि
और समझ के अनुसार एकांगी व्याख्या की।

हिंदू जाति की वर्तमान दुर्दशा का कारण उस साँप की अवस्था से समझा जा
सकता है जिसे एक संत ने किसी भी मनुष्य को न डँसने की शिक्षा दी थी।
जब मनुष्यों ने देखा कि साँप डँसता नहीं है तो उन्होंने उसे पत्थर
मार-मारकर घायल कर दिया। जब वही संत उस घायल साँप से मिले और
सारी स्थिति जानी तो बोले कि वत्स मैंने तुम्हें डँसने से मना किया था,
मगर फुँफकारने से नहीं। यदि इतनी-सी बात तुम ठीक से समझ लेते तो
आज तुम्हारी यह दुर्दशा नहीं होती।

हिंदुओं की कहानी इससे कुछ अलग नहीं है। व्यवहार के साथ अध्यात्म के
अविवेकी-अविचारी घालमेल ने उनकी गति भी उस साँप की तरह ही कर
डाली। यही वजह है कि धर्मांतरण के लिए कभी जोर-जबरदस्ती और
प्रलोभनों का सहारा न लेने वाली हिंदू जाति सदियों से दूसरे धर्मों के इसी
तरह के उपायों का शिकार होती आयी है।

यदि हम यह मानकर चले कि धर्म के नाम पर दंगे करने वाले या आतंक
फैलाने वाले लोग किसी धर्म को नहीं मानते, किसी धर्म का प्रतिनिधित्व
नहीं करते और ऐसे लोग केवल गुंडे, अपराधी और आतंकवादी होते हैं, और
कुछ नहीं, तो एक बात कहने का दुस्साहस मैं करना चाहता हूँ। इसे किसी
विचारधारा के प्रति पक्षधरता न समझा जाए। कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र में
एक गठबंधन विशेष की सरकार के कार्यकाल में धार्मिक आधार पर दंगे न
के बराबर हुए। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि दंगा करने वालों को
मालुम था कि वोटों के खातिर उनका संरक्षण नहीं किया जाएगा, बल्कि
कठोरता से उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।

अनाक्रमण के सिद्धांत का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने
ऊपर होने वाले आक्रमण का प्रतिकार भी न करे। यह सिद्धांत सिर्फ देश की
सीमा के मामले में ही लागू नहीं होता, हमारे धर्म, हमारी आस्था और हमारे
विश्वास के मामले में भी लागू होता है। लेकिन यहाँ यह बात भी अच्छी
तरह से ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रतिकार करते समय उसका तरीका
समय और स्थितियों के अनुरूप होना चाहिए।

आँख के बदले आँख और जान के बदले जान का कायदा एक समझदार
समाज का आदर्श नहीं हो सकता। हमारी श्रद्धा और आस्था अपने लक्ष्य और
उद्देश्य के प्रति होनी चाहिए। साध्य की जगह साधन विशेष में आसक्ति हमें
अपने लक्ष्य से दूर कर देती है।

जो लोग यह तर्क देते हैं कि हिंदू समाज सदियों से जुल्म सहता आया है
और अब ईंट का जवाब पत्थर से देने का वक्त आ गया है और इसके लिए
आतंकवादी उपायों का अवलंबन करने में भी संकोच नहीं किया जाना
चाहिए, वे अपनी गलत सोच से पूरे समाज को, पूरे देश को पतन की गर्त
में धकलने का प्रयत्न करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं।

ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि इस तरह की कोई भी कार्यवाही
अंततः वे अपने ही देश के खिलाफ कर रहे हैं। उन्हें यह भी दिवास्वप्न
देखना छोड़ देना चाहिए कि हम भारत को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित कर सकते
हैं। आज से नहीं सदियों से हम सहअस्तित्व में विश्वास करते आये हैं। यह
हमारी विशेषता है, कमजोरी नहीं। हम सहज मानवीय रिश्तों के बीच खड़ी
होने वाली दिवारों को गिराने में विश्वास रखते हैं, उन्हें बनाने में नहीं।
लेकिन अपने अस्तित्व के ऊपर होने वाले किसी भी आक्रमण का हम विरोध
करेंगे, यह संदेश पूरे संसार को पहुँचाने के लिए हिंसा ही एकमात्र उपाय नहीं
है।

जो हिंदू धर्म की रक्षा के लिए चिंतित होने का दावा करते हैं, यदि सचमुच
उनकी भावना सच्ची है तो उन्हें पूरी ताकत से पहले हिंदुओं के बीच व्याप्त
कुरूतियों के दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए। आज भी हिंदुओं में विभिन्न
जातियों के बीच इतनी गहरी खाइयां है कि उन्हें डुबोने के लिए किसी बाहरी
दुश्मन की आवश्यकता नहीं है।

और फिर एक धर्म विशेष के लोगों को लगातार विकास की मुख्य धारा से
अलग रखकर उनके भीतर असुरक्षा की भावना भरने और उन्हें एक वोट बैंक
में परिवर्तित करके उनका उपयोग करने वाले नेता भी हिंदू समाज का ही
हिस्सा हैं। ये घर के भेदी तो विभीषण भी नहीं कहलाये जा सकते क्योंकि
विभीषण ने आसुरी शक्ति के खिलाफ विद्रोह करके सत्य का साथ दिया था।
मगर ये आधुनिक जयचंद अपने क्षुद्र स्वार्थों के खातिर एक पूरे युग की पीठ
में छुरा घोंप रहे हैं।

हिंदू, मुस्लिम, इसाई या किसी भी धर्म के चश्मे को उतारकर यदि हम सिर्फ
अपने राष्ट्र का विचार करें तो हम सबके लिए यह जरूरी है कि हम पूरी
ताकत और पूरी सख्ती से इस तरह के लोगों, नेताओं और पार्टियों का
विरोध करे जिनका पेट लोगों के बीच नफरत की आग लगाकर ही पलता
और भरता है।

इस देश को किसी हिंदू ओसामा बिन लादेन की नहीं, शिवाजी की
आवश्यकता है। हिंदू हित का दम भरने वाले यदि सचमुच ईमानदार हैं तो
उन्हें एक बार शिवाजी का जीवन चरित्र ध्यान से पढ़ना चाहिए। क्षमा और
साहस के बीच, नैतिकता और वीरता के बीच कैसा संतुलन होना चाहिए, यह
समझना उनके लिए आसान हो जाएगा।

सोमवार, अक्तूबर 27, 2008

आतंकी प्रवृत्ति और हिंदू

वोट बैंक की खातिर धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले बल्लियों उछल रहे
हैं। धर्म को राजनीति का मोहरा बनाकर सत्ता की रोटियां सेंकने की कोशिश
करने वाले बगले झाँक रहे हैं। अब तक धर्म के आधार पर आतंकवाद के
प्रति सहानुभूति का आरोप झेलने वाले और अपने राष्ट्रप्रेम को भी बार-बार
संदेह की तराजू पर तुलता देखने वाले बाँहें चढ़ाये खड़े हैं कि अब बोलो,
तुममें और हममें क्या अंतर रह गया है? मगर जिन लोगों के लिए हिंदू
होने का मतलब ही प्रेम, करुणा और सहनशीलता को जीवन का आधार बना
लेना रहा है, वे सकते में हैं, पीड़ा से भरे हैं और शर्म से अपना सिर नीचा
किए हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि हिंदुओं में अपराधी नहीं हैं, दुष्ट प्रवृत्ति के लोग नहीं हैं,
हत्यारे नहीं हैं और यहाँ तक कि देशद्रोही नहीं हैं। आईएसआई को सेना की
खुफिया जानकारी देने वाले सारे मुसलमान होते हैं, ऐसा नहीं है। उनमें
हिंदुओं के भी नाम शामिल होते हैं। मगर संगठित रूप से किसी एक संप्रदाय
के निरपराध लोगों की बाकायदा प्रशिक्षण लेकर हत्या करने की साजिश में
हिंदुओं के शामिल होने जैसा खुलासा पहली बार हुआ है। और उस पर भी
कहर यह कि ऐसा करने वालों में एक साध्वी का भी नाम उछला है।
संन्यास लेकर अपने परमप्रिय प्रभु से एकाकार होने का प्रयत्न तो हर
संन्यासी करता है। कुछ प्रभु का आदेश मानकर धर्म, देश और समाज की
भलाई और उत्थान के काम में भी जुट जाते हैं। शंकराचार्य ने जहाँ सनातन
धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए पूरा देश अपने कदमों से नाप लिया था वहीं
समर्थ स्वामी रामदास ने अपने समाज में फैली अकर्मण्यता और कायरता
को दूर करने के लिए देशभर में मठों और हनुमान मंदिरों की स्थापना कर
बलोपासना की अलख जगायी थी। स्वामी विवेकानंद ने संन्यास लेकर अपने
धर्म की अलख दुनिया भर में जगायी थी और अपनी प्रतिभा से लोगों के
दिलों पर विजय प्राप्त की थी। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि गेरुआ वस्त्र
धारण करने के बाद किसी ने किसी एक खास संप्रदाय के लोगों की हत्या
की साजिश के लिए बम बनाने का प्रशिक्षण लिया हो। कम से कम आरोप
तो वैसा ही है।

कुछ लोग यह मुद्दा उठा रहे हैं कि हजारों साल से सहअस्तित्व की भावना
के साथ रहने वाले हिंदू धर्म के कुछ लोगों को यदि आतंक का रास्ता
अपनाना पड़ा है तो इसके कारणों की मीमांसा गंभीरता से की जानी चाहिए।
लेकिन कोई भी कारण इस तरह के किसी भी कृत्य को समर्थनीय नहीं बना
सकता। आतंक फैलाना और निर्दोष लोगों की हत्या करना ऐसे कृत्य हैं
जिनका किसी भी कारण से और किसी भी स्थिति में समर्थन नहीं किया जा
सकता।

पूरे देश में यह एक आम धारणा है, खासकर बहुसंख्यक समुदाय में कि
आतंकवाद की किसी भी घटना के प्रति, उसमें शामिल लोगों के प्रति
आमतौर पर मुस्लिम समुदाय का नजरिया सीधे-सीधे धर्म से प्रेरित रहता
है। यही वजह है कि इस तरह की घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करने के
लिए न केवल आम मुस्लिम बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग भी जल्दी से
आगे नहीं आता। आज जब पहली बार यह बात सामने आयी है कि हिंदुओं
में भी देश के भीतर आतंक की साजिश रचने की प्रवृत्ति घर करने लगी है,
सभी भारतीयों को, विशेषकर हिंदुओं को यह गलती नहीं दोहरानी चाहिए
और इस तरह की मानसिकता की कड़ी निंदा करने में देर नहीं लगानी
चाहिए।

इस तरह की किसी भी मानसिकता या प्रवृत्ति के अंकुर यदि फूटे हैं तो उन्हें
तत्काल जड़ से उखाड़ फेंकने और यह संदेश सारे देश को देने में देर नहीं
लगायी जानी चाहिए कि इस देश के नागरिक के रूप में हम किसी भी
परिस्थिति और किसी भी वजह के नाम पर इस तरह की घटनाओं को
स्वीकृति देना तो दूर कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते।
राजनीति की रोटियां सेंकने वाले इस बात का अपने-अपने स्वार्थ के हिसाब
से उपयोग करेंगे। कानूनी प्रक्रिया के नाम पर देश की संसद पर हमला
करने की साजिश में शामिल व्यक्ति को फाँसी देने में जानबूझकर देरी करने
या आतंकवादियों के इनकाउंटर के दौरान एक पुलिस अधिकारी के शहीद
होने के बावजूद उस पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले लोगों की मानसिकता और
उसके परिणामों पर चर्चा की जानी चाहिए। मगर इससे पहले यह संदेश
आतंकी साजिश रखने वाले हर व्यक्ति तक पहुँचाया जाना चाहिए, चाहे वह
किसी भी धर्म या समुदाय से सम्बन्ध रखता हो, कि देश की एकता,
अखंडता और संप्रभुता के खिलाफ होने वाली किसी भी कोशिश को बर्दाश्त
नहीं किया जाएगा।

वैसे भी किसी हिंदू व्यक्ति का आतंकी मुहिम में शामिल होना इसलिए भी
बहुत गंभीर है कि मुस्लिम और इसाई समुदाय ने तो धर्म के नाम पर कई
लड़ाइयां लड़ी हैं मगर हिंदुओं ने कभी धर्म के नाम पर युद्ध नहीं किया है।
धर्म के प्रसार का हिंदुओं का तरीका हमेशा प्रेम और सद्भाव रहा है, आतंक
नहीं। यही वजह है कि एक प्रखर देशभक्त होने के बावजूद हम सावरकर के
मुकाबले महात्मा गांधी को तरजीह देते रहे हैं, जिनके भारत की तस्वीर
एकरंगी नहीं है। वह हर रंग से मिलकर मुकम्मिल होती है। आतंक की
साजिश रचने वाला कुछ और चाहे कहलाये मगर वह हिंदू कहलाने के लायक
तो कतई नहीं हो सकता।

मंगलवार, अक्तूबर 21, 2008

मीडिया मेहरबान तो राज पहलवान

इसे हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मुर्खता कहा जाए या फिर मजबूरी।जो राज ठाकरे दिन-रात हिन्दी-अंग्रेजी टीवी चैनलों को गालियां देते हैं,
बेइज्जत करते हैं, वे ही चैनल राज की गिरफ्तारी की ख़बर दिन भर
दिखाकर राज ठाकरे को मुफ्त की पब्लिसिटी दे रहे हैं।
यह क्या राज की चालाकी नहीं है? उनकी छोटी-सी पार्टी, जिसकी हैसियत
महाराष्ट्र में आज तक छुट-पुट सीटों को छोड़कर कहीं साबित नहीं हो पायी
है, उसे और खुद को पूरे देश में उन्होंने इन्हीं चैनलों का उपयोग करके
प्रख्यात कर दिया है। चाहे उनका रवैया बदनाम हुए तो क्या नाम तो होगा
वाला रहा हो।
जिस राज्य में राज के आदर्श बाल ठाकरे कभी अपने अकेले के दम पर
अपनी पार्टी शिवसेना को सत्ता में नहीं ला पाए, उस राज्य में अपने चाचा
की नकल करने वाले राज ठाकरे सर्वेसर्वा हो गए हैं, ऐसी इमेज टीवी चैनल
बना रहे हैं। इन टीवी चैनलों को देखकर शायद पूरे देश में लोग यही मानते
या समझते हैं कि राज की मर्जी से महाराष्ट्र का हर पत्ता हिलता है और वे
राज्य में कानून और सरकार से भी बड़े हो गए हैं।
उत्तर भारतीयों के खिलाफ कुछ माह पहले एक आन्दोलन छेड़ा गया। मुंबई
और कुछ अन्य जगहों पर कुछ लोगों के साथ मारपीट की गई। कुछ
तोड़फोड़ की गई। उसी की तस्वीरें बार-बार दिखाकर हिन्दी-अंग्रेजी मीडिया
ने राज को हीरो बना दिया। लेकिन इसके पीछे का सच क्या है? पूरे देश में
छुटपुट बातों को लेकर दंगा होने की घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। कई
बार उसमें अनेक लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है। लेकिन
महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ छिड़े मनसे के आंदोलन में एक व्यक्ति
की मौत हुई और वह भी मराठी व्यक्ति की। उस आंदोलन के दौरान डरकर
कुछ लोग बिहार या उत्तर प्रदेश में लौट गए हों मगर क्या महाराष्ट्र उत्तर
भारतीय लोगों से खाली हो गया?
वास्तविकता यह है कि स्थिति में आज भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है।
महाराष्ट्र के अधिकांश उद्योग उत्तर भारतीय मजदूरों और कर्मचारियों की
सहायता से ही चल रहे हैं।
उस समय मराठी लोगों के रोजगार के नाम पर हंगामा करने वाले राज या
उनकी पार्टी ने पूरे देश में चर्चा पाने का अपना मकसद पूरा होने के बाद
बड़े सुविधाजनक ढंग से रोजगार का मुद्दा छोड़ दिया और दुकानों के
साइनबोर्ड मराठी में किये जाने का नया मुद्दा छेड़ दिया। उनकी अपेक्षा के
अनुरूप इस बार भी मीडिया ने इसे जमकर उछाला और अपना लाभ देखने
की आदत वाले कुछ दुकानदारों ने तोड़फोड़ के डर से मराठी में अपने
साइनबोर्ड बनवा लिये। मगर क्या अंग्रेजी के साइनबोर्ड महाराष्ट्र से खत्म हो
गए? जिन्हें कोई गलतफहमी हो, उन्हें एक बार महाराष्ट्र का दौरा कर लेना
चाहिए।
मीडिया द्वारा बनायी गयी इस इमेज का परिणाम था कि जेट एयरवेज से
निकाले गये वे कर्मचारी, जिन्हें न राज ठाकरे की नीतियों में आस्था है न
तरीकों में, उनकी शरण में जा पड़े। प्रचार के इस बेहतरीन मौका का राज
ने भरपूर फायदा उठाया। नरेश गोयल भी शरणागत हुए। राज मसीहा हो
गए।
और गरम लोहे पर चोट करने के सिद्धांत के अनुरूप रेलवे में भरती के लिए
होने वाली परीक्षा के दौरान मारपीट का अपना पुराना हथियार अपनाकर
राज नये सिरे से चर्चा में आ गए। मीडिया हर बार की तरह इस बार भी
राज के मुफ्त प्रचार में जुट गया है। हर बार राज के सामने शरणागत
होकर उन्हें बाल ठाकरे के कद का नेता बनाने और इस बहाने उद्धव ठाकरे
को मात देने के प्रयास में लगी राज्य सरकार ने इस बार उन्हें गिरफ्तार तो
कर लिया है मगर उनके खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही हो पाएगी, इसकी
उम्मीद राजनीति के गिरते हुए स्तर को देखते हुए कम ही है।
मीडिया की कृपा और राज्य सरकार के सहयोगात्मक रवैये के चलते पूरे देश
में राज ठाकरे की छवि चाहे महाराष्ट्र के भाग्यविधाता की बन गयी हो मगर
राज्य की आम जनता के बीच उनकी कितनी पैठ है, इसका पता आने वाले
चुनावों में पूरे देश को लग ही जाएगा। तब तक आम लोग परेशानी उठाते
रहेंगे। क्योंकि उन्हें तो इसकी आदत है।