शुक्रवार, दिसंबर 23, 2005

चोरी और सीनाजोरी

चोरी और ऊपर से सीनाजोरी शायद इसी को कहते हैं। भ्रष्टाचार की गंदगी से लोकतंत्र की संसद रूपी गंगा को गंदे नाले में बदलने वाले और उनके सहयोगी, बजाए अपने कुकृत्यों पर शर्मिंदा होकर चुल्लू भर पानी में डूब मरने का उपाय करने के मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन में नुक्स निकालने और उस पर रोक लगाने की मांग करने में लगे हुए हैं। क्या हो जाएगा स्टिंग ऑपरेशनों पर रोक लगा देने से? क्या लोकतंत्र का चीर-हरण कराने और करने वाले ये दुर्योधन और दु:शासन अपनी रगों में दौड़ते भ्रष्टाचार के काले रक्त को बदलकर वाल्मिकी बन जाएंगे?

कौन नहीं जानता है कि आज भारत की रग-रग को भ्रष्टाचार का घुन खोखला कर चुका है। वह चाहे नेता हो, अधिकारी हो, पुलिस हो या पूंजीपति हों। जिसे जब अवसर मिलता है, बिना देश, समाज और अपने 'धर्म' की परवाह किए वह भ्रष्टाचार की बहती गंगा में न सिर्फ हाथ धो रहा है बल्कि नंगा होकर डूबकियां लगा-लगाकर नहाने में लगा हुआ है। एक जमाना था जब लोग समाज में अपनी बदनामी से भय खाते थे। बदनामी का कलंक सह न पाने के कारण कई लोग आत्महत्या तक कर लेते थे। मगर अब बदनामी में भी नाम होगा की मानसिकता चारों और फैल चुकी है। पैसा और रसूख आज आदमी के हर ऐब और बुराई पर हावी हो जाता है। और हमारा समाज इस रसातल पर पहुँच गया है कि वह पैसे और रसूख वाले आदमी की काली करतूतों की पूरी जानकारी के बावजूद उसकी जी-हजूरी करने और तलुए चाटने में लगा रहता है।

समाज की इसी रीढ़विहीनता और नैतिक रूप से पूरी तरह से खोखले हो जाने का परिणाम है कि कैमरे के सामने संसद में प्रश्न पूछने के लिए और सांसद निधि से सहायता देने के लिए कमीशन और घूस लेते हुए सारी दुनिया के सामने दिखायी देने के बावजूद ये दुर्योधन और उनके सहयोगी दु:शासन बजाए अपनी करतूतों के शर्मिंदा होने के पूरी बेशरमी के साथ मीडिया के खिलाफ कार्यवाही करने की माँग कर रहे हैं। इन लोगों को अपने भीतर रग-रग में बसी हुई गंदगी से कोई परहेज नहीं है, शर्म नहीं है। इनकी तकलीफ सिर्फ यह है कि उस गंदगी पर से मीडिया ने परदा क्यों हटा दिया। ये लोग भारत के महान लोकतंत्र की बगिया को अपनी बदबू से नर्क बना देने वाली इस भ्रष्टाचाररूपी गंदगी को साफ नहीं करना चाहते हैं, ये सिर्फ इतना चाहते हैं कि इस गंदगी पर ढके हुए कपड़े को कोई हटाकर उजागर न कर दे।

इसमें कोई शक नहीं है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए आज टीआरपी का प्रश्न सर्वोपरि है। यह भी संभव है कि आपरेशन दुर्योधन और आपरेशन चक्रव्यूह के आयोजन के पीछे मूल प्रेरणा देशहित न होकर व्यावसायिक हित हों, मगर क्या इससे यह सच्चाई झूठ में बदल जाती है कि इस देश के कर्णधार संसद में जनहित के लिए सवाल उठाने के अवसर का उपयोग भी पैसा बनाने के लिए कर रहे हैं? क्या इससे यह सच छुप जाएगा कि अपने संसदीय क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए मिलने वाले पैसों में भी कुछ लोग कमीशनखोरी कर रहे हैं?

यह ठीक है कि किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे की निजता में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। मगर मीडिया द्वारा उजागर किये गए इन दो मामलों में निजता का सवाल कहाँ उठता है? फिर तो रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों पकड़े जाने वाला व्यक्ति भी सीबीआई के खिलाफ यही दलील दे सकता है। अघोषित सम्पत्ति को उजागर करने गयी आयकर विभाग की टीम को भी कोई व्यक्ति निजता की दुहाई देकर रोक सकता है।

मगर इस तरह के एक-दो ऑपरेशनों से कुछ खास परिवर्तन होने की उम्मीद बहुत कम है। भारतीय जन-मानस का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसकी अपनी याददाश्त का बहुत कमजोर होना है। भारतीय जनता बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाती है। अच्छाई भी और बुराई भी। यही वजह है कि एक ओर देश को सम्मान और प्रतिष्ठा दिलाने वाले कालांतर में दर-दर की ठोकरें खाते हुए नज़र आते हैं और पाप, छल-बल के द्वारा या अपराध करके रुपया, सत्ता और प्रतिष्ठा हासिल करने वाले पूजे जाने लगते हैं। आधुनिकता की होड़ में जिस तेजी से हम अपने संस्कारों को कचरे की टोकरी में डाल रहे हैं, उसका ही यह परिणाम है कि हमसे ही शक्ति पाने वाले भस्मासुर आज हमारी ही जान के पीछे पड़े हुए हैं। इस सच को हम जितना जल्दी समझ लेंगे, उतना हमारे लिए, हमारे परिवार के लिए, समाज के लिए और देश के लिए अच्छा होगा।

बुधवार, दिसंबर 14, 2005

संसद में सवाल

कबीरा बेचारा, औट रहा था बैठे-बैठे कपास कि बगल में रहने वाला रामलाल दौड़ा चला आया. चेहरा रुआंसा-सा हो रहा था. पूछा कबीरे ने कि भैया रामलाल क्या बात है, इस तरह मुंह क्यों लटकाए हुए हो? रामलाल बोला, भाई कबीरे, मैं संसद में एक सवाल पूछवाना चाहता हूं. आश्चर्य हुआ कबीरे को, ऎसी क्या बात हो गयी है, जिसके बारे में संसद जैसी खासमखास जगह पर चर्चा हो. रामलाल से दरियाफ़्त किया तो वह बोला - भाई कबीरे, मैं चाहता हूं कि संसद में यह सवाल पूछा जाए कि मेरी धर्मपत्नी रामप्यारी मुझसे प्यार करती है या नहीं?

कबीरा बेचारा, औन्धे मुंह गिरते-गिरते बचा. बरस पड़ा वह रामलाल पर - समझ क्या रखा है तुमने देश की संसद को, घसियारों की चौपाल? कितने ज़रूरी काम होते हैं वहां लोगों को. हंगामा, शोर-शराबा, नारेबाज़ी, वाकआउट, कभी-कभी मारा-पीटी - क्या-क्या नहीं करना पड़ता है? ऎसे में तुम्हारे जैसे बेकार लोगों के फ़ालतू सवालों को पूछने की फ़ुर्सत किसे है?

नाराज़ हो गया रामलाल, कहने लगा कि तुमने मुझे क्या इतना गया-गुज़रा समझ रखा है? मेरा प्रश्न मेरे जीवन के लिये किसी भी सवाल से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. और फ़िर मैं कहां कोई फ़ोकट में सवाल पूछने के लिए कह रहा हूं किसी को? पूरे दस हज़ार रुपए देने के लिये तैयार हूं मैं. तब कबीरा ने समझाया रामलाल को कि कैमरे के सामने सवाल पूछने के लिये पैसे लेते हुए जो लोग धराए हैं, उनमें से भी किसी ने १५ ह्ज़ार से कम नहीं लिये थे. काफ़ी मोल-भाव करने के बाद रामलाल भी आखिर १५ हज़ार देने के लिये राज़ी हो ही गया.

फ़िलहाल कबीरे के पास पच्चीस सवाल, एडवांस सहित इकट्ठा हो गये हैं. उनमें से कुछ हैं - मेरी भैंस को डंडा किसने मारा? मेरी मुर्गी के अंडे किसने चुराए? मेरी गैर-हाज़िरी में मेरा पडौसी मेरी बीवी से क्या गुटुर-गू करता है? मेरा पति कब मर कर मेरा पिंड छोड़ेगा? मेरे खूसट बाप ने सारी जायज़ाद किसके नाम लिखी है? इन सवालों के लिये कबीरा को १५ हज़ार से लेकर एक लाख रुपए तक एडवांस मिल गये हैं. संभावना है कि इसी सत्र में ये सवाल पूछे जायेंगे. यदि आपका कोई सवाल हो तो तुरंत कबीरा से संपर्क करें.

बुधवार, अक्तूबर 05, 2005

सनसनी का दुष्परिणाम

टीआरपी की दौड़ में आगे रहने की हड़बड़ी में इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी सारी हदें पार करता जा रहा है. कोई सनसनी का दामन थामे हुए है तो किसी ने क्राइम रिपोर्टर को अपना तारणहार बनाया हुआ है, वहीं कोई प्राइम टाइम में मेट्रो एफआईआर दिखा रहा है. सामाजिक सरोकारों से जिस तरह इन चैनल वालों ने मुंह चुराया हुआ है, उसे देखकर कोफ़्त होती है. नैतिक मूल्यों से तो वैसे भी इनका कोई लेना-देना कभी रहा नहीं है. वो सारा ठेका दूरदर्शन का था, जो उसके पतन के साथ ही काल-कवलित हो गया है.

न्यूज़ चैनलों की इस होड़ का ताज़ा शिकार दिल्ली का एक व्यक्ति हुआ है, अपनी पत्नी सहित. इस व्यक्ति पर उसी की भतिजी ने बलात्कार का आरोप लगाया था. बलात्कार इन चैनलों के लिये सबसे बिकाऊ और मसालेदार खबर होती है, सो टूट पड़े सारे चैनल वाले इस खबर पर. इतना हो-हल्ला मचाया कि मारे शर्मिंदगी के उस व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली. अपने अन्तिम पत्र में उस व्यक्ति ने लिखा है कि वह किसी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के काबिल ही नहीं है, इसलिये बलात्कार का तो प्रश्न ही नहीं उठता.

इस व्यक्ति ने अपने दो भाइयों की मौत के बाद उनकी पत्नियों को अपनी पत्नी का दर्जा दिया हुआ था और उनके चार बच्चों का वह सहारा था.

इस मामले में सच-झूठ से पर्दा तो शायद जांच के बाद उठ जाये मगर उन चार बच्चों का जिम्मा कौन लेगा जो अनाथ हो गये हैं. क्या मीडिया उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? क्या इन चैनल वालों के लिये कोई आचार-संहिता नहीं होनी चाहिये?

यह ठीक है कि गंदगी को ढकने से गंदगी दूर नहीं होती, मगर गंदगी को सजाकर परोसना भी तो उचित नहीं है. अगर चैनल वाले अपरोक्ष रूप से अपराध को महिमा-मंडित करने की जगह, उसे सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने की जगह संयत शब्दों में उसकी भयावहता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करें तो ज्यादा बेहतर होगा. अपराध और बलात्कार को बिकाऊ समझने का रवैया जब तक ये चैनल वाले नहीं छोड़ेंगे, उनके लिये अपने दायित्वों का सही निर्वाह करना मुश्किल है.

सोमवार, सितंबर 26, 2005

दुखिया दास कबीर

मोह नहीं या बैर नहीं पर बांटे सबकी पीर
बीच-बज़ार आ खड़ा हुआ, दुखिया दास कबीर.


कर सकता है कोई सवाल कि क्यों आ खड़ा हुआ कबीर, क्या हमने पीले चावल भेज कर न्यौता दिया था? फ़िर क्यों चला आया भाई कबीरे, बिल्कुल उसी स्टाइल में जैसे हिन्दी फिल्मों की हीरोइन गाती हुई चली आती है - आना ही पड़ा सजना, जालिम थी दिल की लगी.


अब जिसे जो भी कहना है, कहे, मगर जब दुखिया दास कबीर आ ही गया है तो जल्दी जाने वाला नहीं है. यहां बैठ कर कपास औटेगा और अच्छा-बुरा जो भी दिखाई देगा, समझ में आयेगा, आप लोगों को सुनाता भी रहेगा.


बात अपनी प्यारी हिन्दी से शुरू करें -
भारत में हिन्दी की दशा सचमुच बड़ी बुरी है.
हालांकि हिन्दी पढ़ने और लिखने वालों की कमी नहीं है, मगर यह संख्या लगातार कम होती जा रही है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हिन्दी का रोज़गार से सम्बन्ध अब लगभग नहीं के बराबर रह गया है. अब हिन्दी आपकी मज़बूरी हो सकती है या आपका प्यार हो सकती है मगर आपकी जीविका का आधार नहीं हो सकती. अच्छी नौकरी के लिये अब अंग्रेजी आना अनिवार्य हो गयी है. सब इस बात को समझ चुके हैं इसलिये अपने बच्चों को कोई हिन्दी माध्यम से नहीं पढ़ाना चाहता है.

मगर एक बात और है. नेट पर हिन्दी चिट्ठों की भरमार और उनमें बढ़िया हिन्दी का प्रयोग देख कर दिल में तसल्ली भी होती है कि सब कुछ खत्म नहीं हो गया है. उम्मीद है सभी चिट्ठा-बन्धु जितनी बढ़िया हिन्दी का प्रयोग स्वयं करते हैं, उस विरासत को अपने बच्चों को देने के प्रति भी उतने ही जागरुक होंगे. संख्या चाहे कम हो मगर ऎसे लोगों के कारण ही आश्वस्त है यह दुखिया दास कबीर.

शुक्रवार, सितंबर 23, 2005

आयेगा कौन?

पतझड़ है
पीले पत्ते हैं
गर्म हवा है
धूप बड़ी है

होठों पर
मुस्कान कुटिल
लेकर यह
तक़दीर खड़ी है

सहमा-सा
है एक गीत
इसे संग मेरे
अब गायेगा कौन?

जीवन के इस
मोड़ पे तन्हा
खड़ा हूं, संग
आयेगा कौन?

- पराग

गुरुवार, सितंबर 22, 2005

उम्र भर का साथ था
अजनबी फिर भी रहे.

माशूका है मौत लेकिन
ज़िंदगी फिर भी रहे.

आंसुओं की हो झड़ी पर
एक हंसी फिर भी रहे.

रात-दिन तुझको मैं देखूं
तिश्नगी फिर भी रहे.

- पराग

बुधवार, सितंबर 14, 2005

बीच गमों के हो इक आशा
जीवन है इतना सीधा-सा.

दुख लाखों भी सह लेंगे हम
प्यार करे कोई थोड़ा-सा.