जय हो का शोर इस समय सारे भारत में गूंज रहा है।
ए.आर. रहमान के रूप में भारत को एक ऐसी प्रतिभा हासिल है जो अपनी चमक निसंदिग्ध रूप से सारी दुनिया में बिखेर रहा है।
भारत के संगीतकार को, गीतकार को, टैक्नीशियन को ऑस्कर मिला, इस बात की खुशी हम सबको है और होनी भी चाहिए।
मगर यह खुशी स्लमडॉग मिलेनियर के कारण मिली है, यह बात इस खुशी में खटास घोलने वाली है।
स्लमडॉग की सफलता पर खुश न होने का अर्थ पुरातनवादी, प्रतिक्रियावादी, स्यापा करने वाला होना नहीं है।
सवाल यहाँ उस मानसिकता का है जिसे लेकर यह फिल्म बनायी गयी और उस मानसिकता का भी है जिसके चलते इस फिल्म पर पुरस्कारों की पूरी दुनिया में बारिश हुई।
पहले फिल्म बनाने वालों की मानसिकता की बात करें।
यह फिल्म विकास स्वरूप के उपन्यास क्यू एंड ए पर आधारित बतायी जा रही है।
उस उपन्यास की कथा सार संक्षेप में इस प्रकार है – यह कथा राम मोहम्मद थामस नामक लड़के की है जिसे नवजात अवस्था में दिल्ली के सेंट मेरी चर्च के दरवाजे पर छोड़ दिया जाता है। आठ साल तक यह बच्चा पादरी के घर में पलता है और फिर उसे अनाथालय जाना पड़ता है। वहाँ उसकी दोस्ती सलीम नामक लड़के से होती है। एक व्यक्ति पैसे देकर राम और सलीम को मुंबई लेकर आता है और उन्हें भीख मांगने पर मजबूर करता है। अपनी आंखें फोड़ दिये जाने के डर से दोनों वहाँ से भाग जाते हैं। अनेक जगहों पर रहते हैं और अनेक तरह के काम करते हैं। आखिर में 18 साल की उम्र में राम धारावी की झोपड़पट्टी में रहते हुए कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम में हिस्सा लेता है। राम मोहम्मद थॉमस इस कार्यक्रम में एक करोड़ रूपये जीत लेता है। मगर जिस रात इस कार्यक्रम की शूटिंग पूरी होती है, उसी रात पुलिस उसे पकड़ कर ले जाती है और बुरी तरह से उसकी पिटाई करती है। पुलिस की इस हरकत के पीछे टीवी कार्यक्रम का संयोजन करने वाली अमेरिकी कंपनी द्वारा राम पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया जाना होता है। इस आरोप की असली वजह यह होती है कि शो शुरू होने के आठ महीने के भीतर किसी का करोड़पति बनना कंपनी के लिए फायदे का सौदा नहीं होता है। लेकिन झोपड़पट्टी में रहने वाला एक अनपढ़ लड़का कंपनी के न चाहते हुए भी करोड़पति बन जाता है। यह उन्हें सहन नहीं होता है। नुकसान से बचने के लिए अमेरिकी कंपनी पुलिस की सहायता से उस लड़के से धोखाधड़ी की स्वीकारोक्ति चाहती है ताकि वह उसे रुपये देने से बच सके।
पुलिस हिरासत में अधमरी अवस्था में पड़े राम को बचाने के लिए आगे आती है स्मिता शाह नामक एक युवा वकील। वह उस टीवी शो की सीडी राम को दिखाती है और हर प्रश्न का सही उत्तर उसने कैसे दिया, इस बारे में पूछताछ करती है। राम उसे हर प्रश्न का उत्तर देने की वजह बताता जाता है, जो उसके विगत जीवन की घटनाओँ में छुपी है।
इसी में एक कहानी गुड़िया की है। बचपन में राम जिस चाल में रहता था वहीं पास में रहने वाली गुड़िया का शराबी बाप जब उसे अपनी वासना का शिकार बनाना चाहता है तो राम उसे जोर से धकेलता है। इस धक्के में ही उसकी मौत हो जाती है। राम भाग जाता है। गुड़िया उसका यह उपकार नहीं भूलती है। यही गुडिया बड़ी होकर वकील स्मिता शाह बनती है। अंत में राम और गुड़िया अपनी-अपनी राह निकल जाते हैं। उनके बीच कोई प्रेम कथा नहीं जनमती।
अब जिन्होंने स्मलडॉग देखी है, वे इस पूरी कथा से फिल्म की तुलना करें। एक बात जो बेहद तीव्रता से महसूस होती है, वह है इस फिल्म के पटकथा लेखक और निर्देशक की रंगभेदी, वर्णभेदी, देशभेदी मानसिकता। मूल उपन्यास से बिलकुल अलग हटकर जानबूझकर इस फिल्म को ऐसा रूप दिया गया है और उसमें ऐसे दृश्य घुसेड़े गये हैं जो जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं और भारत का एक ऐसा कुरूप चेहरा दुनिया के सामने रखते हैं जो वास्तविकता में गंदी मानसिकता का मेल होने के कारण निर्मित हुआ है।
खुले में शौच करना भारत की मानसिकता है मगर पूरी तरह से मल में नहाकर एक सुपरस्टार (अमिताभ बच्चन) के हस्ताक्षर लेने में सफल होने वाला दृश्य किस कलात्मक मांग की पूर्ति करता है, इसका उत्तर स्लमडॉग का गुणगान करने वालों को दूसरों के समक्ष स्पष्ट करने से पहले खुद अपने आप से पूछना चाहिए।
मूल कथा में करोड़पति बनने वाले बच्चे के धर्म का कोई संकेत नहीं है। राम मोहम्मद थॉमस के रूप में वह भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। मगर फिल्म में उसे जमाल का नाम देकर मुसलिम बनाया गया है। फिर झुग्गी बस्ती में हुए साम्प्रदायिक दंगों को दिखाते हुए उसमें हिंदुओं की क्रूरता को चित्रित किया गया है। मूल कथा से इतना बड़ा विचलन क्या सोद्देश्य नहीं है? दंगे के दौरान बचकर भागता मुसलिम बच्चे को भगवान राम का रूप धारण किया हुआ एक दूसरा बच्चा दिखता है और उसके चलते उसके मन पर राम की छवि अत्यंत गहराई से बस जाती है। इस सारे प्रकरण को फिल्म में डालने की आवश्यकता किस कला की मांग थी?
मूल उपन्यास में खलनायक अमेरिकी कंपनी होती है जो झोपड़पट्टी में रहने वाले एक लड़के की अपने कार्यक्रम में अचानक हुई जीत को सहन नहीं कर पाती है। मगर फिल्म में अमेरिकी कंपनी के किसी हवाले को सफाई से उड़ाते हुए खलनायक बनाया गया है कार्यक्रम के भारतीय एंकर को।
जादू-टोने और सपेरों का देश भारत विगत एक दशक से ज्यादा समय से अपनी बुद्धि का दुनिया भर में डंका बजाता हुआ नित नयी तरक्की कर रहा है, यह बात उन लोगों को कभी हजम नहीं हो सकती जो आज भी साम्राज्यवादी मानसिकता को छोड़ नहीं पाये हैं। जिस इंग्लैंड ने डेढ़ सौ साल से ज्यादा समय भारत पर राज्य किया, आज उसी देश में रहते हुए एक भारतीय दुनिया के सबसे अमीर लोगों में शामिल हो गया। जिस खेल में वे अपना एकाधिकार समझते थे, आज उसी खेल में पछाड़ते हुए भारतीय टीम नंबर एक बनने की और है। पूरा विश्व जब आर्थिक मंदी की चपेट में है, भारत उसका मुकाबला करने में सक्षम नजर आ रहा है। अमेरिका के सबसे सम्पन्न समुदायों में भारतीय समुदाय शामिल है और इतना शक्तिशाली व प्रभावी हो चुका है कि कोई भी शासनाध्यक्ष उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। इस वस्तुस्थिति का स्लमडॉग में हुए भारत के चित्रण से तुलना कीजिए। विसंगति अपने-आप सामने आ जाएगी। दुनिया भर में स्लमडॉग को जिस तरह हाथोंहाथ लिया गया है, यह पश्चिम की उसी हीन भावना और हताशा पर मरहम लगाने की कोशिश का परिचायक है, जो भारत और भारतीयों की चौतरफा सफलता ने पश्चिमी लोगों के भीतर उपजायी है।
मगर अफसोस इस बात का है कि पश्चिमी रंग में रंगे भारतीय भी भारत को उसी चश्मे से देखते हैं। उनके लिए स्लमडॉग की सफलता भारत के लिए गर्व का विषय बन जाती है।
एक आदमी एक बच्चे को तड़ातड़ झापड़ मारता है और फिर लोगों से उसकी तारीफ करता है कि देखो इतने झापड़ मारने पर भी यह बहादुर बच्चा रोया नहीं। अब वह बच्चा बेवजह झापड़ मारे जाने के अपमान को भूलकर इस बात से खुश हो जाए कि उसे झापड़ मारने वाला उसकी सहनशीलता की तारीफ कर रहा है तो इसे क्या कहा जाए? दुर्भाग्य से हमारे टीवी चैनल, हमारे अख़बार और पश्चिमी चश्मे से दुनिया को ही नहीं, खुद भारत को भी देखने वाले भारतीय अपने-आप को वही बच्चा साबित कर रहे हैं। ऐसे में स्लमडॉग के निर्देशक डैनी बोयल भारतीयों की तारीफ न करें तो आखिर क्या करें?
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