सोमवार, नवंबर 03, 2008

हिंदुओं की दुर्दशा की कारण-मीमांसा

कानून कहता है कि जब तक किसी पर आरोप साबित नहीं हो जाएं, उसे
निर्दोष मानना चाहिए। इस कसौटी पर साध्वी प्रज्ञा भी फिलहाल दोषी नहीं
कही जा सकती। इस बात से कोई भी व्यक्ति, जिसके अपने पूर्वाग्रह न हों,
इंकार नहीं करेगा। इस पूरे मामले के पीछे आगामी चुनावों में फायदा उठाने
के उद्देश्य से रची गई कोई गहरी साजिश हो, इस संभावना से भी इंकार
नहीं किया जा सकता। आज हमारी राजनीति का स्तर इतना नीचे गिर गया
है कि देश और समाज पर पड़ने वाले गहरे और दूरागामी प्रभाव की चिंता
किए बगैर क्षुद्र स्वार्थों के लिए इस तरह की हरकत अब असंभव नहीं
लगती। यदि हिंदुओं में आतंकवादी प्रवृत्ति घर करने लगी है तो गंभीरता से
इसके कारणों की मीमांसा की जानी चाहिए, यह बात पिछली बार भी कही
गयी थी। मगर इस तर्क के पीछे किसी भी तरह की आतंकी प्रवृत्ति को,
मानसिकता को बढ़ावा देना, हमारी बहुत बड़ी भूल साबित होगी।

हिंदू संस्कृति (जिसमें सनातन धर्म भी शामिल है) को गहराई से
जानने-समझने वाले इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ जीवन-पद्धति मानते हैं और एक
हिंदू होने के नाते हमें इस बात पर गर्व है और होना भी चाहिए। इसका
सबसे बड़ा कारण यह है कि इसमें जीवन के हर पहलू का गहराई से चिंतन
किया गया है। व्यावहारिक जीवन जीने के सर्वश्रेष्ठ उपायों से लेकर सर्वव्यापी
परमात्मा से एकाकार होने तक का कोई भी विषय ऐसा नहीं है, जिसका
आमूल-शीर्ष विचार इस संस्कृति में ना किया गया हो। शायद यही हमारी
सबसे बड़ी दिक्कत है।

व्यावहारिक जीवन और अध्यात्म - ये दो सर्वथा विपरीत विषय हैं। दोनों के
अपने-अपने नियम और सिद्धांत हैं। एक के नियम और सिद्धांत दूसरे पर
लागू नहीं होते। दोनों को एक साथ साधा नहीं जा सकता। अध्यात्म
सामान्य व्यावहारिक जीवन से बहुत आगे का विषय है। व्यावहारिक जीवन
जीते हुए अध्यात्म के मार्ग पर चलने की तैयारी जरूर की जा सकती है।
लेकिन ऐसा करते समय व्यवहार और अध्यात्म के सिद्धांतों के बीच संतुलन
कायम रखना होता है।

संपूर्ण हिंदू जाति का दुर्भाग्य यह है कि उसे व्यवहार और अध्यात्म के बीच
यह संतुलन साधना नहीं आया। इसके विपरीत उसने इन दोनों के मध्य ऐसा
घालमेल किया कि उसकी स्थिति दुविधा में दोनों गये, माया मिली न राम
जैसी हो गयी। और यह इसके बावजूद हुआ कि भगवद्गीता सदियों से हमारे
देश के चिंतकों और विचारकों का सबसे प्रिय ग्रंथ रहा है। लेकिन गीता को,
भगवान श्रीकृष्ण के एकमेवाद्वितीय उपदेशों को जानने-समझने का हमारा
दृष्टिकोण अंधों के दल द्वारा हाथी को देखने के तरीके के समान रहा। जिस
अंधे के हाथ हाथी का जो हिस्सा आया, उसने हाथी का आकार वैसा ही
समझा। उसी तरह भगवद्गीता के उपदेशों की भी हमने अपनी-अपनी रुचि
और समझ के अनुसार एकांगी व्याख्या की।

हिंदू जाति की वर्तमान दुर्दशा का कारण उस साँप की अवस्था से समझा जा
सकता है जिसे एक संत ने किसी भी मनुष्य को न डँसने की शिक्षा दी थी।
जब मनुष्यों ने देखा कि साँप डँसता नहीं है तो उन्होंने उसे पत्थर
मार-मारकर घायल कर दिया। जब वही संत उस घायल साँप से मिले और
सारी स्थिति जानी तो बोले कि वत्स मैंने तुम्हें डँसने से मना किया था,
मगर फुँफकारने से नहीं। यदि इतनी-सी बात तुम ठीक से समझ लेते तो
आज तुम्हारी यह दुर्दशा नहीं होती।

हिंदुओं की कहानी इससे कुछ अलग नहीं है। व्यवहार के साथ अध्यात्म के
अविवेकी-अविचारी घालमेल ने उनकी गति भी उस साँप की तरह ही कर
डाली। यही वजह है कि धर्मांतरण के लिए कभी जोर-जबरदस्ती और
प्रलोभनों का सहारा न लेने वाली हिंदू जाति सदियों से दूसरे धर्मों के इसी
तरह के उपायों का शिकार होती आयी है।

यदि हम यह मानकर चले कि धर्म के नाम पर दंगे करने वाले या आतंक
फैलाने वाले लोग किसी धर्म को नहीं मानते, किसी धर्म का प्रतिनिधित्व
नहीं करते और ऐसे लोग केवल गुंडे, अपराधी और आतंकवादी होते हैं, और
कुछ नहीं, तो एक बात कहने का दुस्साहस मैं करना चाहता हूँ। इसे किसी
विचारधारा के प्रति पक्षधरता न समझा जाए। कुछ वर्ष पहले महाराष्ट्र में
एक गठबंधन विशेष की सरकार के कार्यकाल में धार्मिक आधार पर दंगे न
के बराबर हुए। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि दंगा करने वालों को
मालुम था कि वोटों के खातिर उनका संरक्षण नहीं किया जाएगा, बल्कि
कठोरता से उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।

अनाक्रमण के सिद्धांत का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने
ऊपर होने वाले आक्रमण का प्रतिकार भी न करे। यह सिद्धांत सिर्फ देश की
सीमा के मामले में ही लागू नहीं होता, हमारे धर्म, हमारी आस्था और हमारे
विश्वास के मामले में भी लागू होता है। लेकिन यहाँ यह बात भी अच्छी
तरह से ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रतिकार करते समय उसका तरीका
समय और स्थितियों के अनुरूप होना चाहिए।

आँख के बदले आँख और जान के बदले जान का कायदा एक समझदार
समाज का आदर्श नहीं हो सकता। हमारी श्रद्धा और आस्था अपने लक्ष्य और
उद्देश्य के प्रति होनी चाहिए। साध्य की जगह साधन विशेष में आसक्ति हमें
अपने लक्ष्य से दूर कर देती है।

जो लोग यह तर्क देते हैं कि हिंदू समाज सदियों से जुल्म सहता आया है
और अब ईंट का जवाब पत्थर से देने का वक्त आ गया है और इसके लिए
आतंकवादी उपायों का अवलंबन करने में भी संकोच नहीं किया जाना
चाहिए, वे अपनी गलत सोच से पूरे समाज को, पूरे देश को पतन की गर्त
में धकलने का प्रयत्न करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं।

ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि इस तरह की कोई भी कार्यवाही
अंततः वे अपने ही देश के खिलाफ कर रहे हैं। उन्हें यह भी दिवास्वप्न
देखना छोड़ देना चाहिए कि हम भारत को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित कर सकते
हैं। आज से नहीं सदियों से हम सहअस्तित्व में विश्वास करते आये हैं। यह
हमारी विशेषता है, कमजोरी नहीं। हम सहज मानवीय रिश्तों के बीच खड़ी
होने वाली दिवारों को गिराने में विश्वास रखते हैं, उन्हें बनाने में नहीं।
लेकिन अपने अस्तित्व के ऊपर होने वाले किसी भी आक्रमण का हम विरोध
करेंगे, यह संदेश पूरे संसार को पहुँचाने के लिए हिंसा ही एकमात्र उपाय नहीं
है।

जो हिंदू धर्म की रक्षा के लिए चिंतित होने का दावा करते हैं, यदि सचमुच
उनकी भावना सच्ची है तो उन्हें पूरी ताकत से पहले हिंदुओं के बीच व्याप्त
कुरूतियों के दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए। आज भी हिंदुओं में विभिन्न
जातियों के बीच इतनी गहरी खाइयां है कि उन्हें डुबोने के लिए किसी बाहरी
दुश्मन की आवश्यकता नहीं है।

और फिर एक धर्म विशेष के लोगों को लगातार विकास की मुख्य धारा से
अलग रखकर उनके भीतर असुरक्षा की भावना भरने और उन्हें एक वोट बैंक
में परिवर्तित करके उनका उपयोग करने वाले नेता भी हिंदू समाज का ही
हिस्सा हैं। ये घर के भेदी तो विभीषण भी नहीं कहलाये जा सकते क्योंकि
विभीषण ने आसुरी शक्ति के खिलाफ विद्रोह करके सत्य का साथ दिया था।
मगर ये आधुनिक जयचंद अपने क्षुद्र स्वार्थों के खातिर एक पूरे युग की पीठ
में छुरा घोंप रहे हैं।

हिंदू, मुस्लिम, इसाई या किसी भी धर्म के चश्मे को उतारकर यदि हम सिर्फ
अपने राष्ट्र का विचार करें तो हम सबके लिए यह जरूरी है कि हम पूरी
ताकत और पूरी सख्ती से इस तरह के लोगों, नेताओं और पार्टियों का
विरोध करे जिनका पेट लोगों के बीच नफरत की आग लगाकर ही पलता
और भरता है।

इस देश को किसी हिंदू ओसामा बिन लादेन की नहीं, शिवाजी की
आवश्यकता है। हिंदू हित का दम भरने वाले यदि सचमुच ईमानदार हैं तो
उन्हें एक बार शिवाजी का जीवन चरित्र ध्यान से पढ़ना चाहिए। क्षमा और
साहस के बीच, नैतिकता और वीरता के बीच कैसा संतुलन होना चाहिए, यह
समझना उनके लिए आसान हो जाएगा।

1 टिप्पणी:

  1. भारत के लोग पिछले 1000 साल से मज़हबी आतंकवाद के शिकार हैं। सनातन धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म इस आतंक की मार से अफगानिस्तान, पश्चिमी पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, पेशावर और काश्मीर के साथ-साथ पूर्व में आधे बंगाल से मिटा दिये गये हैं। भारत में सिर्फ हिंदूओं को प्रलोभन देकर अथवा जबरन इस्लाम या फिर ईसाई धर्म में धर्मांतरित किया जा रहा है। भोले-भाले आदिवासी तथा गरीब तबके के लोग इसके सीधे शिकार हैं।

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