सोमवार, अक्तूबर 27, 2008

आतंकी प्रवृत्ति और हिंदू

वोट बैंक की खातिर धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले बल्लियों उछल रहे
हैं। धर्म को राजनीति का मोहरा बनाकर सत्ता की रोटियां सेंकने की कोशिश
करने वाले बगले झाँक रहे हैं। अब तक धर्म के आधार पर आतंकवाद के
प्रति सहानुभूति का आरोप झेलने वाले और अपने राष्ट्रप्रेम को भी बार-बार
संदेह की तराजू पर तुलता देखने वाले बाँहें चढ़ाये खड़े हैं कि अब बोलो,
तुममें और हममें क्या अंतर रह गया है? मगर जिन लोगों के लिए हिंदू
होने का मतलब ही प्रेम, करुणा और सहनशीलता को जीवन का आधार बना
लेना रहा है, वे सकते में हैं, पीड़ा से भरे हैं और शर्म से अपना सिर नीचा
किए हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि हिंदुओं में अपराधी नहीं हैं, दुष्ट प्रवृत्ति के लोग नहीं हैं,
हत्यारे नहीं हैं और यहाँ तक कि देशद्रोही नहीं हैं। आईएसआई को सेना की
खुफिया जानकारी देने वाले सारे मुसलमान होते हैं, ऐसा नहीं है। उनमें
हिंदुओं के भी नाम शामिल होते हैं। मगर संगठित रूप से किसी एक संप्रदाय
के निरपराध लोगों की बाकायदा प्रशिक्षण लेकर हत्या करने की साजिश में
हिंदुओं के शामिल होने जैसा खुलासा पहली बार हुआ है। और उस पर भी
कहर यह कि ऐसा करने वालों में एक साध्वी का भी नाम उछला है।
संन्यास लेकर अपने परमप्रिय प्रभु से एकाकार होने का प्रयत्न तो हर
संन्यासी करता है। कुछ प्रभु का आदेश मानकर धर्म, देश और समाज की
भलाई और उत्थान के काम में भी जुट जाते हैं। शंकराचार्य ने जहाँ सनातन
धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए पूरा देश अपने कदमों से नाप लिया था वहीं
समर्थ स्वामी रामदास ने अपने समाज में फैली अकर्मण्यता और कायरता
को दूर करने के लिए देशभर में मठों और हनुमान मंदिरों की स्थापना कर
बलोपासना की अलख जगायी थी। स्वामी विवेकानंद ने संन्यास लेकर अपने
धर्म की अलख दुनिया भर में जगायी थी और अपनी प्रतिभा से लोगों के
दिलों पर विजय प्राप्त की थी। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि गेरुआ वस्त्र
धारण करने के बाद किसी ने किसी एक खास संप्रदाय के लोगों की हत्या
की साजिश के लिए बम बनाने का प्रशिक्षण लिया हो। कम से कम आरोप
तो वैसा ही है।

कुछ लोग यह मुद्दा उठा रहे हैं कि हजारों साल से सहअस्तित्व की भावना
के साथ रहने वाले हिंदू धर्म के कुछ लोगों को यदि आतंक का रास्ता
अपनाना पड़ा है तो इसके कारणों की मीमांसा गंभीरता से की जानी चाहिए।
लेकिन कोई भी कारण इस तरह के किसी भी कृत्य को समर्थनीय नहीं बना
सकता। आतंक फैलाना और निर्दोष लोगों की हत्या करना ऐसे कृत्य हैं
जिनका किसी भी कारण से और किसी भी स्थिति में समर्थन नहीं किया जा
सकता।

पूरे देश में यह एक आम धारणा है, खासकर बहुसंख्यक समुदाय में कि
आतंकवाद की किसी भी घटना के प्रति, उसमें शामिल लोगों के प्रति
आमतौर पर मुस्लिम समुदाय का नजरिया सीधे-सीधे धर्म से प्रेरित रहता
है। यही वजह है कि इस तरह की घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करने के
लिए न केवल आम मुस्लिम बल्कि मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग भी जल्दी से
आगे नहीं आता। आज जब पहली बार यह बात सामने आयी है कि हिंदुओं
में भी देश के भीतर आतंक की साजिश रचने की प्रवृत्ति घर करने लगी है,
सभी भारतीयों को, विशेषकर हिंदुओं को यह गलती नहीं दोहरानी चाहिए
और इस तरह की मानसिकता की कड़ी निंदा करने में देर नहीं लगानी
चाहिए।

इस तरह की किसी भी मानसिकता या प्रवृत्ति के अंकुर यदि फूटे हैं तो उन्हें
तत्काल जड़ से उखाड़ फेंकने और यह संदेश सारे देश को देने में देर नहीं
लगायी जानी चाहिए कि इस देश के नागरिक के रूप में हम किसी भी
परिस्थिति और किसी भी वजह के नाम पर इस तरह की घटनाओं को
स्वीकृति देना तो दूर कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते।
राजनीति की रोटियां सेंकने वाले इस बात का अपने-अपने स्वार्थ के हिसाब
से उपयोग करेंगे। कानूनी प्रक्रिया के नाम पर देश की संसद पर हमला
करने की साजिश में शामिल व्यक्ति को फाँसी देने में जानबूझकर देरी करने
या आतंकवादियों के इनकाउंटर के दौरान एक पुलिस अधिकारी के शहीद
होने के बावजूद उस पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले लोगों की मानसिकता और
उसके परिणामों पर चर्चा की जानी चाहिए। मगर इससे पहले यह संदेश
आतंकी साजिश रखने वाले हर व्यक्ति तक पहुँचाया जाना चाहिए, चाहे वह
किसी भी धर्म या समुदाय से सम्बन्ध रखता हो, कि देश की एकता,
अखंडता और संप्रभुता के खिलाफ होने वाली किसी भी कोशिश को बर्दाश्त
नहीं किया जाएगा।

वैसे भी किसी हिंदू व्यक्ति का आतंकी मुहिम में शामिल होना इसलिए भी
बहुत गंभीर है कि मुस्लिम और इसाई समुदाय ने तो धर्म के नाम पर कई
लड़ाइयां लड़ी हैं मगर हिंदुओं ने कभी धर्म के नाम पर युद्ध नहीं किया है।
धर्म के प्रसार का हिंदुओं का तरीका हमेशा प्रेम और सद्भाव रहा है, आतंक
नहीं। यही वजह है कि एक प्रखर देशभक्त होने के बावजूद हम सावरकर के
मुकाबले महात्मा गांधी को तरजीह देते रहे हैं, जिनके भारत की तस्वीर
एकरंगी नहीं है। वह हर रंग से मिलकर मुकम्मिल होती है। आतंक की
साजिश रचने वाला कुछ और चाहे कहलाये मगर वह हिंदू कहलाने के लायक
तो कतई नहीं हो सकता।

मंगलवार, अक्तूबर 21, 2008

मीडिया मेहरबान तो राज पहलवान

इसे हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मुर्खता कहा जाए या फिर मजबूरी।जो राज ठाकरे दिन-रात हिन्दी-अंग्रेजी टीवी चैनलों को गालियां देते हैं,
बेइज्जत करते हैं, वे ही चैनल राज की गिरफ्तारी की ख़बर दिन भर
दिखाकर राज ठाकरे को मुफ्त की पब्लिसिटी दे रहे हैं।
यह क्या राज की चालाकी नहीं है? उनकी छोटी-सी पार्टी, जिसकी हैसियत
महाराष्ट्र में आज तक छुट-पुट सीटों को छोड़कर कहीं साबित नहीं हो पायी
है, उसे और खुद को पूरे देश में उन्होंने इन्हीं चैनलों का उपयोग करके
प्रख्यात कर दिया है। चाहे उनका रवैया बदनाम हुए तो क्या नाम तो होगा
वाला रहा हो।
जिस राज्य में राज के आदर्श बाल ठाकरे कभी अपने अकेले के दम पर
अपनी पार्टी शिवसेना को सत्ता में नहीं ला पाए, उस राज्य में अपने चाचा
की नकल करने वाले राज ठाकरे सर्वेसर्वा हो गए हैं, ऐसी इमेज टीवी चैनल
बना रहे हैं। इन टीवी चैनलों को देखकर शायद पूरे देश में लोग यही मानते
या समझते हैं कि राज की मर्जी से महाराष्ट्र का हर पत्ता हिलता है और वे
राज्य में कानून और सरकार से भी बड़े हो गए हैं।
उत्तर भारतीयों के खिलाफ कुछ माह पहले एक आन्दोलन छेड़ा गया। मुंबई
और कुछ अन्य जगहों पर कुछ लोगों के साथ मारपीट की गई। कुछ
तोड़फोड़ की गई। उसी की तस्वीरें बार-बार दिखाकर हिन्दी-अंग्रेजी मीडिया
ने राज को हीरो बना दिया। लेकिन इसके पीछे का सच क्या है? पूरे देश में
छुटपुट बातों को लेकर दंगा होने की घटनाएं आये दिन होती रहती हैं। कई
बार उसमें अनेक लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है। लेकिन
महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ छिड़े मनसे के आंदोलन में एक व्यक्ति
की मौत हुई और वह भी मराठी व्यक्ति की। उस आंदोलन के दौरान डरकर
कुछ लोग बिहार या उत्तर प्रदेश में लौट गए हों मगर क्या महाराष्ट्र उत्तर
भारतीय लोगों से खाली हो गया?
वास्तविकता यह है कि स्थिति में आज भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है।
महाराष्ट्र के अधिकांश उद्योग उत्तर भारतीय मजदूरों और कर्मचारियों की
सहायता से ही चल रहे हैं।
उस समय मराठी लोगों के रोजगार के नाम पर हंगामा करने वाले राज या
उनकी पार्टी ने पूरे देश में चर्चा पाने का अपना मकसद पूरा होने के बाद
बड़े सुविधाजनक ढंग से रोजगार का मुद्दा छोड़ दिया और दुकानों के
साइनबोर्ड मराठी में किये जाने का नया मुद्दा छेड़ दिया। उनकी अपेक्षा के
अनुरूप इस बार भी मीडिया ने इसे जमकर उछाला और अपना लाभ देखने
की आदत वाले कुछ दुकानदारों ने तोड़फोड़ के डर से मराठी में अपने
साइनबोर्ड बनवा लिये। मगर क्या अंग्रेजी के साइनबोर्ड महाराष्ट्र से खत्म हो
गए? जिन्हें कोई गलतफहमी हो, उन्हें एक बार महाराष्ट्र का दौरा कर लेना
चाहिए।
मीडिया द्वारा बनायी गयी इस इमेज का परिणाम था कि जेट एयरवेज से
निकाले गये वे कर्मचारी, जिन्हें न राज ठाकरे की नीतियों में आस्था है न
तरीकों में, उनकी शरण में जा पड़े। प्रचार के इस बेहतरीन मौका का राज
ने भरपूर फायदा उठाया। नरेश गोयल भी शरणागत हुए। राज मसीहा हो
गए।
और गरम लोहे पर चोट करने के सिद्धांत के अनुरूप रेलवे में भरती के लिए
होने वाली परीक्षा के दौरान मारपीट का अपना पुराना हथियार अपनाकर
राज नये सिरे से चर्चा में आ गए। मीडिया हर बार की तरह इस बार भी
राज के मुफ्त प्रचार में जुट गया है। हर बार राज के सामने शरणागत
होकर उन्हें बाल ठाकरे के कद का नेता बनाने और इस बहाने उद्धव ठाकरे
को मात देने के प्रयास में लगी राज्य सरकार ने इस बार उन्हें गिरफ्तार तो
कर लिया है मगर उनके खिलाफ कोई ठोस कार्यवाही हो पाएगी, इसकी
उम्मीद राजनीति के गिरते हुए स्तर को देखते हुए कम ही है।
मीडिया की कृपा और राज्य सरकार के सहयोगात्मक रवैये के चलते पूरे देश
में राज ठाकरे की छवि चाहे महाराष्ट्र के भाग्यविधाता की बन गयी हो मगर
राज्य की आम जनता के बीच उनकी कितनी पैठ है, इसका पता आने वाले
चुनावों में पूरे देश को लग ही जाएगा। तब तक आम लोग परेशानी उठाते
रहेंगे। क्योंकि उन्हें तो इसकी आदत है।