इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 24 सितम्बर को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के साठ साल पुराने कोर्ट केस में महत्वपूर्ण फैसला दने जा रही है। इस बात की घोषणा के साथ ही पूरा देश मानो आशंका और भय की लहर से घिर गया है। कम से कम प्रशासन और माडिया के रवैये से तो यही जाहिर हो रहा है।
धर्म के नाम पर हजारों बेगुनाहों के खून से सींचा गया यह विवाद भारत के नाम पर लगा एक बहुत बड़ा कलंक है, इसमें कोई दो राय नहीं है। हालाँकि इस विवाद से जुड़े दोनों पक्षों – हिन्दू और मुसलमान – द्वारा यह सिद्ध करने का लगातार प्रयास किया जाता रहा है कि यह उनकी श्रद्धा और आस्था से जुड़ा मामला है (कुछ लोग इसे धार्मिक स्वाभिमान से भी जोड़ते हैं)। मगर दरअसल यह अपने-अपने धर्म के सम्बन्ध में अज्ञान और संकुचित स्वार्थों से उपजा और फला-फूला एक ऐसा विवाद है जो न केवल अपने राष्ट्र के प्रति, अपितु मानवता के प्रति भी द्रोह का परिचायक है। और इसमें अपराधी केवल वे ही नहीं हैं जो पिछले साठ सालों से इस मुकदमे को लड़ रहे हैं, जो अपने निहित स्वार्थों के चलते धर्म की आड़ लेकर इस विवाद में कूदे, जिन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस मसले को और भड़काया, या फिर जो केवल स्वार्थी तत्वों के भड़काने पर अपने अज्ञान और अपनी मूर्खता के चलते इस आग में घी डाल रहे हैं या खुद ही समिधा बनकर जल भी रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा दोष उन लोगों का है जिन्हें धर्म की समझ है फिर भी वे चुप हैं। उतना ही बड़ा दोष उस पढ़े-लिखे और तथाकथित रूप से समझदार वर्ग का भी है जिसने गहराई से कभी इस मसले को समझने की कोशिश ही नहीं की या समझते हुए भी चुप्पी साधे रखी। दोषी अपने-आप को धर्म-निरपेक्ष कहने वाला वह वर्ग भी है जो अपनी जड़ों से कटने को ही अपनी आधुनिकता समझता है और धर्म तथा जन-मानस को समझे बिना ही अपनी क्षुद्र बुद्धि का परिचय देते हुए इस मसले के हवाई हल सामने रखकर उसे माने जाने की जिद भी करता है।
दरअसल आज तक इस विवाद के जो भी समाधान तलाशने की, थोपने की कोशिशें हुई हैं, उनकी बुनियाद ही गलत रखी जाती रही है। यदि धर्म इस विवाद का आधार है तो फिर उसी आधार में से वे वजहें भी खोजी जानी चाहिएं, जो इस मसले के समाधान की बुनियाद बन सके।
पिछले कई दिनों से लगातार इस मसले पर विचार करने के बाद मेरे मन में कुछ ऐसे तीखे सवाल खड़े होते हैं जो न केवल इस महान देश के नागरिक के रूप में, एक इंसान के रूप में और एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में हिंदुओं और मुसलमानों की (चाहे वे इस मामले में अपना मत व्यक्त करते हों या चुप रहते हों) सोच और विश्वसनीयता के प्रति संदेह पैदा करते हैं।
सबसे पहले यदि हम एक हिंदू के दृष्टिकोण से देखें तो एक हिंदू के लिए इस मामले का केंद्र बिंदू राम हैं। हिंदू जन-मानस से राम का रिश्ता अद्भुत है। त्रैता युग में अयोध्या नरेश दशरथ के घर में जन्में राम को सनातन धर्म में भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है, जो उन्होंने रावण सहित अनेक दुष्ट राक्षसों के विनाश के लिए लिया था। मगर एक हिंदू के लिए राम शब्द का केवल इतना ही परिचय नहीं है। यह केवल दशरथ-पुत्र राम को ही नहीं, बल्कि उस परब्रह्म परमेश्वर को भी अभिव्यक्त करता है जिससे यह संपूर्ण सृष्टि प्रकट हुई, जिसमें यह संपूर्ण सृष्टि अवस्थित है और जिसमें अंततः यह संपूर्ण सृष्टि लीन हो जाने वाली है। नानक से लेकर कबीर तक निर्गुण-निराकार को भजने वाले संत कवियों ने राम को इसी रूप में अपनाया है। यही वजह है कि राम केवल हिंदू धर्म का ही नहीं, भारतीय संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा हो गए।
आज भी पूरे देश में (खासकर पूरे हिन्दी पट्टे में) आपसी अभिवादन का सबसे प्रचलित रूप ‘राम-राम’ ही है। कोई युवती या वधू लजाती है तो उसकी अभिव्यक्ति ‘हाय राम’ से होती है। कोई परेशान होता है तो ‘हे राम’ कहकर सिर पकड़ता है। अनिश्चितता को ‘राम जाने’ से अभिव्यक्ति मिलती है। ‘अरे राम’ भी कई तरह की स्थितियों में मुँह से सहज निकलता है। यहाँ तक कि मृत्यु के उपरांत ‘राम नाम सत्य है’ की धुन के साथ यही राम अंतिम यात्रा में भी साथ चलता है।
संपूर्ण सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक की पूरी यात्रा में कोई दूसरा शब्द या देवरूप जन-मानस से इस हद तक घुल-मिल नहीं पाया। इस बात को समझने के बाद राम की ऐतिहासिकता पर ही प्रश्नचिह्न लगाने की कोशिश कितनी खोखली और विकृति से भरी है, इसे समझा जा सकता है।
लेकिन इससे राम के जन्म-स्थल के रूप में विवादित स्थल की ऐतिहासिकता पर या दावे पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता, ऐसा नहीं है। तमाम हिंदुओं को बिना किसी कुतर्क के, खुले दिल से यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस जगह बाबरी मस्जिद खड़ी थी, ठीक-ठीक उसी जगह राम का जन्म हुआ था, यह न तथ्यों से सिद्ध हो सकता है और न तर्कों से।
हम केवल इतना जानते हैं कि मुगल शासक बाबर के सहायक मीर बाकी ने सन् 1528 में यह मस्जिद बनवायी। हिंदुओं के इस दावे को कि यहाँ मौजूद मंदिर तोड़कर यह मस्जिद बनायी गयी, पूरी तरह से आधारहीन नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम शासकों ने अपने आक्रमणों के दौरान एक नहीं हजारों मंदिरों को लूटा, तोड़ा और कई जगहों पर उसी सामग्री से मस्जिदें भी बनवायीं। पूरे देश में ही इस तरह की निशानियां बिखरी हुई हैं। इससे इंकार करना, आँख बंद करके सूरज को नकारने की तरह है। यहाँ तक कि तारीख-ए-बाबरी में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि बाबर के समय में मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवायी गयीं। मगर उसमें अयोध्या की विवादित जगह का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। न ही बाबरनामे में इसका जिक्र मिलता है, क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से इस काल विशेष के पृष्ठ ही उसमें से गायब हैं। इसके पीछे कोई गहरी साजिश देखी जा सकती है।
मगर फिलहाल जो तथ्य सामने हैं, उनसे यह कतई सिद्ध नहीं किया जा सकता कि जिस जगह बाबरी मस्जिद खड़ी थी, ठीक उसी जगह पर भगवान राम का जन्म हुआ था।
दुर्भाग्य से प्राचीन भारत से ही इस देश में इतिहास को व्यवस्थित ढंग से दर्ज करने की परम्परा का अभाव रहा है। विकृत रूप में ही सही, मगर यह सिलसिला भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ शुरू हुआ।
यद्यपि विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा इस बारे में जारी पुस्तिकाओं में इस बात का दावा किया गया है कि 1528 से ही हिंदू इस स्थान को पुनः हासिल करने के लिए संघर्ष करते और बलिदान देते आ रहे हैं। मगर इसके कोई ऐतिहासिक, ठोस और निर्विवाद साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। सन् 1853 में पहली बार इस जगह के पास साम्प्रदायिक दंगे हुए। इससे यही साबित होता है कि इस जगह के लिए विवाद इससे बहुत पहले से ही रहा होगा। उस विवाद की पुरातनता को हम अपने विश्वास के आधार पर ही 1528 तक ले जा सकते हैं।
सन् 1859 में अंग्रेजी प्रशासन ने विवादित जगह के आसपास बाड़ लगा दी। मुसलमानों को मस्जिद के भीतर इबादत करने की तथा हिंदुओं को बाहर चबुतरे पर (जिसे राम-चबुतरे के नाम से जाना जाता था) पूजा करने की अनुमति दी गई। यह सिलसिला अगले 90 सालों तक चलता रहा। 23 दिसम्बर 1949 की सुबह रामलला की मूर्तियां मस्जिद में पाई गईं। हिंदुओं ने दावा किया कि मूर्तियां स्वयं प्रकट हुईं। जाहिर है मुसलमानों ने इसका तीव्र विरोध किया। उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के कहने पर उ.प्र. के मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत की सरकार ने तत्काल मूर्तियां हटाने का आदेश दिया। लेकिन तत्कालीन जिलाधीश के.के. नायर ने दंगों की आशंका जताते हुए इस आदेश का पालन करने में असमर्थता जताई।
इसके बाद सरकार ने इसे विवादित ढाँचा मानकर ताला लगवा दिया। इस पर 16 जनवरी 1950 को गोपालसिंह विशारद नामक व्यक्ति ने फैजाबाद के सिविल जज एन.एन. चंद्रा के समक्ष अर्जी दाखिल कर पूजा की अनुमति प्राप्त कर ली। इस फैसले के खिलाफ़ मुसलमानों ने याचिका दायर की। मस्जिद पर लगा ताला बरकरार रहा। 1 जनवरी 1986 को यू.सी. पांडे नामक व्यक्ति की याचिका पर फैजाबाद के जिला न्यायाधीश के.एम. पांडे ने ताला हटाने का आदेश देते हुए हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति दे दी। इसके बाद विहिप का वहाँ पर मंदिर बनाने का आंदोलन तेज हुआ, भाजपा इस विवाद में कूदी और अंततः 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, वह सब जानते हैं।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क उठे। फिर इन दंगों की प्रतिक्रिया में दंगे भड़के। फिर उसकी प्रतिक्रिया में मुंबई सहित देश भर में बम विस्फोटों का सिलसिला शुरू हो गया। इसी दौरान आतंकवाद इस देश में अपनी जड़े जमाता रहा। सन् 2002 में गोधरा ट्रेन कांड और फिर गुजरात में हुए दंगों पर भी इसी विवाद की अदृश्य छाया थी।
एक सनातनी हिंदू (जिसकी घोषणा महात्मा गांधी ने भी की थी) के रूप में जब मैं इस मुद्दे को देखता हूँ तो निम्न बातें मेरे समक्ष स्पष्ट होती हैं –
1. भारतीय संस्कृति और हिंदू जन-मानस में अभिन्न और अद्वितीय रूप से घुले-मिले होने की वजह से अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर बनाना प्रसन्नता का विषय ही होगा। मगर इसकी पहली और आखिरी शर्त यह होनी चाहिए कि इसमें मुसलमानों की भी सहमति हो।
2. किसी भी वजह से यदि यह संभव नहीं हो तो एक सच्चे हिंदू के रूप में उस विवादित भूमि को मुसलमानों को सौंप देना ज्यादा बेहतर होगा। यह इस वजह से नहीं कि मुसलमानों का दावा ज्यादा मजबूत है, बल्कि इस वजह से कि एक सच्चा हिंदू कभी भी किसी भी मंदिर की कीमत पर निर्दोष व्यक्तियों की हत्या को प्राथमिकता नहीं दे सकता।
3. अफसोस इस बात का है कि इस मुद्दे से जुड़े ऐसे हिंदू और तमाम संत-महात्मा, जिनका कोई निजी स्वार्थ इस मुद्दे से सिद्ध नहीं होता, सनातनी हिंदू होने का मतलब ही भूल गये हैं, या फिर जानते नहीं हैं। हिंदू होना, परदुःखकातर होना है। सारे संसार को अपना परिवार मानने वाले हिंदू, अपनी दैनिक प्रार्थना में सर्वे भवन्तु सुखिनः की पुकार करने वाले हिंदू, पीड़ पराई जानने को ही हिंदू होने की कसौटी मानने वाले हिंदू, और दूसरे के भले को ही सर्वोच्च धर्म मानने वाले हिंदू कभी भी इस बात की कामना नहीं कर सकते कि किसी निर्दोष के प्राणों की कीमत पर वे कुछ भी हासिल करें, चाहे वह अयोध्या में भगवान राम का मंदिर ही क्यों न हो।
4. नहीं, यह कायरता नहीं है। इस देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा होने के बावजूद मानवता के नाते शांति के लिए, राष्ट्र के स्थैर्य के लिए और भाईचारे के लिए अपने सर्वाधिक आराध्य के जन्मभूमि मंदिर के निर्माण की इच्छा के त्याग के लिए सिर्फ बहुत विशाल ह्रदय की ही नहीं, बहुत बड़े साहस की भी आवश्यकता होती है।
5. फिर भगवान के रूप में राम को पूजते हुए हजारों सालों से हिंदू यह मानते आए हैं कि राम का जन्म नहीं हुआ था, वे प्रकट हुए थे। तुलसीदास भी तो यही कहते हैं – ‘भये प्रकट गुपाला, दीनदयाला।‘ और राम तो इस देश के कण-कण में बसे हुए हैं। ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होंहि मैं जाना’ मानने वाले, ‘ईशावास्यमिदं सर्वं’ की घोषणा करने वाले हिंदू राम के प्राकट्य को एक भूमि के टुकड़े तक सीमित कैसे मान सकते हैं ? और हर सच्चे हिंदू का यह दृढ़ विश्वास होता है कि राम का सर्वोत्तम प्राकट्य स्थल तो स्वयं उसका ह्रदय है।
6. एक हिंदू का यह दृढ़ विश्वास होता है कि ईश्वर ही एकमात्र सर्वशक्तिमान है और उसकी इच्छा के बगैर एक तिनका भी इधर से उधर नहीं हो सकता। वही इस पूरी सृष्टि का जन्मदाता, नियंता और संहारकर्ता है। यदि सचमुच उसकी यह इच्छा हो कि अयोध्या में उसी जगह भगवान राम का मंदिर बने तो क्या ऐसा होना असंभव है ? एक सच्चा हिंदू तो यही मानता है कि हर धर्म एक उसी तक पहुँचने का रास्ता है। मुसलमान जिसे अल्लाह कहते हैं, वह भी तो वही है। सह वै। यदि उसकी इच्छा होगी तो वह मंदिर निर्माण में प्रसन्नता से सहभागी होने के लिए मुसलमानों को भी प्रेरित कर सकता है। इस संभावना से इंकार करना उसकी सामर्थ्य से इंकार करना है।
इस मसले पर मुसलमानों की भूमिका पर विचार करते हुए मेरे मन में प्रखरता से जो सवाल उठते हैं उन्हें मैं पूरी संजीदगी और पूरी बेबाकी के साथ अपने मुसलमान भाइयों और बाकी सबके सामने रखना चाहता हूँ। इस निवेदन के साथ कि इन सवालों का जवाब उन्हें खुद अल्लाह के इस आदेश की रोशनी में खोजना चाहिए कि –‘और सच में झूठ का घालमेल न करो और जान-बूझकर सच को छिपाओ मत।‘ (2.42) –
1. राम जिस तरह हिंदुओं की आस्था के केंद्र हैं, क्या बाबर या मीर बाकी मुसलमानों के लिए हैं ? फिर उनसे जुड़ी मस्जिद के लिए उस पराकोटि का आग्रह क्यों, जैसा राम से जुड़े होने के कारण हिंदुओं का है ?
2. क्या अयोध्या और उसकी बाबरी मस्जिद फैजाबाद से बाहर के मुसलमानों के लिए जियारत का, धार्मिक महत्व का केंद्र रही है ? क्या 1986 में ताला खुलने के बाद इस मुद्दे के साम्प्रदायीकरण और राजनीतिकरण से पहले इस देश के अधिकांश मुसलमानों को अयोध्या की बाबरी मस्जिद की जानकारी भी थी ?
3. क्या सचमुच मुसलमानों के लिए बाबरी मस्जिद भावनाओं से जुड़ा इतना बड़ा मसला है जिसके लिए हजारों बेगुनाहों की जान की कीमत भी बहुत छोटी है ?
और यह सवाल यहाँ रखने से पहले मैंने अपने घर में अन्य धार्मिक / आध्यात्मिक पुस्तकों के साथ रखे हुए कुरान-ए-शरीफ़ के हिंदी तर्जुमे पर निगाहें दौड़ायीं और उनमें मुझे अत्यंत आश्वस्त करने वाली अल्लाह की ये वाणियां मिलीं –
1. जिस किसी ने अपने-आप को पूरे तौर से अल्लाह के भरोसे छोड़ दिया है, और जो नेकी करता है, उसे अल्लाह अच्छा फल देगा। (2.112)
2. बेशक़, तुम सभी इन्सान एक क़ौम के हो और एक ही ईश्वर तुम्हारा पालन-पोषण करता है। इसलिए सब लोग उसी की इबादत करो। लोगों ने अलग-अलग होकर अपने-अपने बाड़े बना लिये हैं। पर सबको एक ही रब के पास जाना है। (21.92-93)
3. अल्लाह ने सबके दिल एक कर दिए। सबके दिलों के भीतर मुहब्बत भर दी है। तुम सारी दुनिया की दौलत खर्च कर देते, तो भी सबके दिलों को एक न कर पाते, लेकिन अल्लाह ने सबमें मुहब्बत भर दी। बेशक़, अल्लाह सर्वसमर्थ है, सर्वज्ञ है। (8.63)
4. ...........जो गुस्सा पी जाते हैं और लोगों को माफ़ कर देते हैं, अल्लाह ऐसे नेकी करने वालों को प्यार करता है। (3.134)
5. नेकी और बदी बराबर नहीं हो सकती। बदी को दूर करने के लिए बदले में ऐसा बर्ताव करो जो बहुत अच्छा हो। फिर अचानक वह आदमी जिसके और तुम्हारे बीच दुश्मनी है, ऐसा बन जाएगा, मानो जिगरी दोस्त हो। (41.34)
6. माफ़ करने की आदत डालो, नेकी का हुक्म देते रहो और जाहिलों से दूर रहो। (7.199)
7. यदि वे सुलह की तरफ झुकें तो तुम भी उसके लिए झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा रखो। (8.61)
8. पूरब और पश्चिम अल्लाह ही के हैं, अत) जिस ओर भी तुम रुख़ करो उसी ओर अल्लाह का रुख़ है। निसंदेह अल्लाह सर्वव्यापी, सर्वज्ञ है। (2.115)
कुरान-ए-शरीफ़ को पढ़ते हुए ऐसी सैंकड़ों आयतें मुझे मिलीं, जो मेरे इस यकीन को दृढ़ करती हैं कि इस्लाम में सबसे ज्यादा महत्व सदाचार और भाईचारे को दिया गया है। इस्लाम के नाम पर जो खून-खराबा और दंगे-फसाद करते हैं, वे न इंसान हैं और न ही मुसलमान। बेगुनाहों का खून बहाकर कोई अल्लाह का प्यारा नहीं हो सकता। उसी तरह जैसे धर्म के नाम पर निर्दोषों के खून से अपने हाथ रंगने वाले किसी भी व्यक्ति को हिंदू कहलाने का कोई अधिकार नहीं है।
आज देश फिर एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, जहाँ से एक रास्ता उसे खुशहाली, तरक्की, अमन और भाईचारे की ओर ले जाएगा, जबकि दूसरा रास्ता अंतहीन अंधेरे की ओर।
यह चुप्पी का वक़्त नहीं है। यह धर्म के नाम पर गुमराह होने का वक़्त नहीं है। यह क्षुद्र सोच में खोए रहने का वक़्त नहीं है। आज हर पढ़े-लिखे और सोचने-समझने वाले इंसान के लिए – चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान – अपने शाश्वत मौन को छोड़कर छाती ठोंककर यह ऐलान कर देने का वक़्त आ गया है कि हमारे लिए इस देश की खुशहाली, अमन और भाईचारे से बढ़कर कुछ नहीं है, न कोई मन्दिर, न कोई मस्जिद, कुछ भी नहीं। आज वक़्त है किसी से भी नफरत का पाठ पढ़ाने वाले किसी भी नेता से अपने नेतृत्व का हर अधिकार छीन कर उसे साफ-साफ यह कह देन का कि धर्म का – चाहे व हिंदू या इस्लाम – इतना अर्थ तो हम भलीं-भाँति जानते हैं कि वह एक-दूसरे से प्यार करना सिखाता है, घृणा करना नहीं।
आज हर हिंदू यह कहने का साहस दिखाए कि हम विवादित जगह मुसलमानों को सौंपने के लिए तैयार हैं, बिना किसी शर्त के। और आज हर मुसलमान यह कहने की हिम्मत करे कि बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बन गया तो कोई पहाड़ नहीं टूटेगा, क्योंकि इस्लाम का अस्तित्व अयोध्या की मस्जिद का मुहताज नहीं था, न है। जैसा कि कुछ लोग साबित करने की कोशिश कर रहे हैं।
यकीन कीजिए, जब हिंदू और मुसलमान दोनों ही मांगने / हासिल करने / छीन लेने की जगह देने की भाषा बोलेंगे और फिर इस मसले पर बातचीत के लिए मिल-बैठेंगे तो इस विवाद का ऐसा हल निकलेगा जो इस देश में एकता, शांति और समृद्धि का नया सूरज लेकर आएगा। आज वक़्त आ गया है अंग्रेजों के बोये बँटवारे के बीज को जड़ से उखाड़ फेंकने का। यह ऐलान कर देने का कि अब कोई और विभाजन नहीं होगा, न जमीन पर और न दिलों पर।