बुधवार, अप्रैल 05, 2006

मेरे जीवन में धर्म का महत्व



यहाँ सबसे पहले यह स्पष्ट कर लिया जाना जरूरी है कि धर्म से तात्पर्य क्या है? एक धर्म वह, जिसे हम धारण करने के अर्थ में लेते हैं और जिसके आधार पर 'धर्मनिरपेक्षता` असंभव-सी चीज दिखायी देती है, दूसरा अंग्रेजी के शब्द रिलीजन के अर्थ में।
मुझे लगता है कि यहाँ धर्म से तात्पर्य उस आचार-विचार पद्धति से जिसे व्यक्ति अपनी परम्परा, रुचि और विश्वास के आधार पर अपनाता है और जिसे हम हिन्दू, मुस्लिम, इसाई आदि धर्म के नाम से सम्बोधित करते हैं।
यहाँ एक तीसरी धारा भी है, जो कहीं न कहीं प्रारंभ तो इसी धर्म रूपी आचार-विचार-व्यवहार से होती है मगर बाद में अध्यात्म का रूप लेकर बहुत आगे तक जाती है या कहें कि उससे बहुत ऊपर उठ जाती है।
अब प्रश्न उठता है धर्म के महत्व का। यह अंतत: व्यक्ति विशेष की सोच, रुचि, भावनाआें और स्थिति पर निर्भर करता है। यहाँ चूँकि विषय को व्यक्ति केंद्रित रखा गया है इसलिए इस पर व्यापक रूप से चर्चा करना उचित नहीं होगा।
मेरे जीवन में धर्म का महत्व - यह बड़ा उलझा हुआ मामला है। सम्प्रदाय के रूप में धर्म का महत्व मेरे लिए मानवता के बाद आता है मगर मानवता सर्वोच्च है, यह बात मैंने धर्म की राह पर चलते हुए ही जानी-समझी। यह एक ऐसा अंतर्सम्बन्ध है जिसे धर्म की पूर्वाग्रही आलोचना करने वाले अनदेखा कर देते हैं।
धर्म के बारे में विचार करते हुए शायद यह बात सबसे पहले ध्यान में रखी जानी चाहिए कि व्यक्ति के लिए धर्म होता है, धर्म के लिए व्यक्ति नहीं। र्धाामक पुस्तकें एक व्यक्ति, उसकी सोच, उसके व्यवहार और उसके जीवन को वर्जनाआें से, बेड़ियों से मुक्त करने वाली होनी चाहिएं, उसमें जकड़कर पशु बना देने वाली नहीं। यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि हर व्यक्ति, परिस्थिति और समय का अपना सच होता है। इस संसार की सीमा में कोई भी सत्य अंतिम नहीं है।धर्म एक ऐसे विशाल वृक्ष की तरह होना चाहिए जो अपनी शरण में आने वाले हर व्यक्ति को फल-फूल और छाया प्रदान कर सके। धर्म मीठे जल के एक ऐसे सरोवर के रूप में होना चाहिए जो हर प्यासे की प्यास बुझा सके, उसे तृप्ति का एहसास दे सके। धर्म व्यक्ति को स्वतंत्रता के अनंत आकाश में उड़ने के लिए तैयार करने वाला होना चाहिए, उसके पाँव की बेड़ियां बनकर उसकी किसी भी यात्रा की संभावना को सदा के लिए खत्म कर देने वाला नहीं।
यदि पूजा करने से या कोई र्धाामक पुस्तक पढ़ने से मुझे शांति मिलती है, आत्मिक बल मिलता है, आनंद मिलता है, जीवन की जंग में नये उत्साह के साथ उतरने का साहस मिलता है तो मुझे वह क्यों नहीं करना चाहिए? मगर इसका अर्थ यह भी नहीं कि मैं इसे अपने जीवन की एक ऐसी अनिवार्य दिनचर्या बना लूं जो अंतत: मुझे उबा दे।
मैं जो शांति किसी अच्छे, सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण मंदिर में जाकर प्राप्त करता हूँ, वही शांति मुझे ऐसे ही अणुआें से परिपूर्ण गुरुद्वारे, दरगाह या चर्च में भी मिल जाती है। न वह गुरुद्वारा, दरगाह या चर्च इस मामले में मुझसे कोई पक्षपात करता है (वह तो केवल लोगों की विशेषता है) और न मेरे भीतर इसे लेकर किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह होता है।
धर्म का सीधा-सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के आचार-विचार और व्यवहार से है। मेरी दृष्टि में महत्व उसी धर्म का है जो हमें इस सृष्टि से, मानव और प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाए, जो हममें धैर्य भर सके और साहस भी। जो न हमें पशु बनाए और न यंत्र, बल्कि एक मानव के रूप में ही हमें प्रतिष्ठित-पल्लवित करे। नाम उसे चाहे जो दिया जाए, रूप उसका चाहे जो हो, मगर यदि धर्म एक व्यक्ति को एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी के रूप में, एक बेहतर मानव के रूप में जीने के लिए प्रेरित, प्रोत्साहित करता है तो वह सार्थक है। इस कसौटी पर यदि वह खरा नहीं उतरता तो वह और चाहे जो कुछ हो, मगर अपने सच्चे अर्थों में धर्म नहीं हो सकता।