तो माकपा के पोलित ब्यूरो की पहली महिला सदस्य और माकपा प्रमुख प्रकाश करात की पत्नी वृंदा करात ने चर्चा में आने के लिए सटीक निशाना लगा ही लिया। कुछ लोग चर्चा में आने के लिए, बने रहने के लिए कोई न कोई जुगाड़ खोजने में लगे रहते हैं। ऐसे लोग उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यह मानकर चलते हैं कि बदनाम होंगे तो क्या हुआ, नाम तो होगा।
और हमारा मीडिया। हमेशा की तरह उसने इस बार भी अपने गैर-जिम्मेदाराना रवैये का जी खोल कर प्रदर्शन किया। बेचारे स्वामी रामदेव। वृंदा करात नहीं हुई, सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश हो गयी और सारे मीडिया ने पहले दिन ही बिना कुछ सोचे-समझे स्वामी रामदेव को दाऊद इब्राहिम और ओसामा बिन लादेन से भी बड़ा अपराधी घोषित कर दिया।
स्वामी रामदेव की दवाओं में पशुओं की हड्डियां और इस जैसे अन्य शीर्षकों का अर्थ क्या है? १५० से ज्यादा दवाएं बनाने वाली दिव्य फार्मेसी की क्या सभी दवाओं में पशुओं की हडि्डयों का चूरा पाया गया है? जिन तीन-चार प्रयोगशालाओं में ये दवाएं भेजी गयीं, उनमें से कितनी प्रयोगशालाओं ने इस प्रकार का निष्कर्ष निकाला? सभी या केवल माकपा शासित कोलकाता की प्रयोगशाला ने? आयुर्वेद में दवा के तौर पर स्वीकृत शंख भस्म को ऐलोपैथी के नजरिये से पशु-अंश माना जाता है, इसलिए यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि जिस पशु-अंश की बात को इतना प्रचारित किया जा रहा है, वह वास्तव में क्या है। नमूने इकट्ठा करने और उसे भेजने के तरीके पर सवालिया निशान तो अपनी जगह हैं ही।
एक बात बहुत स्पष्ट है। बावजूद इसके कि स्वामी रामदेव हिंदू धर्म की परम्पराओं के तहत् दीक्षित एक संन्यासी हैं, उनके कार्यों का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। वे मानव-मात्र की ऐसी सेवा कर रहे हैं, जिसकी मिसाल भारत के वर्तमान ही नहीं, इतिहास में भी मुश्किल से मिलेगी। उनके कार्यों का सम्बन्ध सीधे-सीधे मानव के शरीर से है। यही वजह है कि उनके अनुयायियों में सभी धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों और वर्गों के लोग हैं। दूसरे उनका मुख्य कार्य दवाएं बेचना नहीं, योग सिखाना है, जिसका अंतिम लक्ष्य आयुर्वेद सहित सभी प्रकार की दवाओं से मुक्ति का है। यदि दिव्य फार्मेसी, किन्ही एक या दो दवाओं में शामिल तत्वों का उसके लेबल पर उल्लेख न किये जाने की दोषी पायी भी जाती है तो भी उन दवाओं की गुणवत्ता और किसी रोग विशेष में उन दवाओं से होने वाले लाभ पर प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता।
स्वामी रामदेव की नीयत पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता, मगर उनका विरोध करने वालों की नीयत पर कई सवालिया निशान लगे हुए हैं। जब शीत-पेयो में विषैले तत्वों की मौजूदगी का मामला उठा था और भारत की सर्वोच्च नीति नियामक संस्था की एक समिति ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि पेप्सी और कोकाकोला जैसे शीत पेयों में मानव शरीर के लिए अत्यधिक हानिकारक तत्व खतरनाक मात्रा में पाये जाते हैं तब ये नेत्री या इनके अन्य संगी-साथी कहाँ थे? ऐसे शीत-पेयों का भारत में निर्माण और वितरण प्रतिबंधित करने के लिए इन लोगों ने क्या किया? यह स्वामी रामदेव ही हैं, जिनकी सीख और अनुरोध के कारण इन शीतपेयों की बिक्री में लक्षणीय गिरावट आयी है। इसके अलावा भारत में १६००० से अधिक ऐसी ऐलोपैथी की दवाएं बेची जाती हैं जो अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित हैं। इस बारे में अक्सर समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में खबरें आती रहती हैं। इन दवाओं पर रोक लगाने के लिए इन लोगों ने अब तक कितनी बार आवाज उठायी, आंदोलन किये और मौत का खुला व्यापार करने वालों को गिरफ्तार करने की मांग उठाई? और सबसे बड़ी बात, धर्म को अफीम मानने वाले मार्क्स के अनुयायी आज लोगों की आस्था पर आघात की चिंता करने लगे हैं? क्या यह विरोधाभास आश्चर्यचकित नहीं करता?
एक दिन के भीतर ही स्वामी रामदेव को मिले अभूतपूर्व जन-समर्थन को देखकर राजनीतिक दलों और समाचार-पत्रों के भी सुर बदलने लगे हैं। जहाँ तक मूल मुद्दे का सवाल है। वह चाहे स्वामी रामदेव ही क्यों न हो, कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। निष्पक्ष रूप से दिव्य फार्मेसी की दवाओं की जाँच हो, और उसका जो भी निष्कर्ष हो, उसका उचित परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने के उपरांत दोषी पाये जाने वालों के खिलाफ समुचित कार्यवाही हो। इससे किसी को भी इंकार नहीं है। मगर केवल सस्ता प्रचार पाने के लिए इस देश के करोड़ों लोगों को रोग और दवाओं से मुक्ति पाने के लिए प्रेरित करने की अलख जगाने वाले, मानव-मात्र के स्वास्थ्य और भले के लिए दिन-रात लगे हुए एक क्रांतिकारी को सरेआम बेइज्जत करने की कोशिश करने वालों का भी भंडाफोड़ होना जरूरी है।