टीआरपी की दौड़ में आगे रहने की हड़बड़ी में इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी सारी हदें पार करता जा रहा है. कोई सनसनी का दामन थामे हुए है तो किसी ने क्राइम रिपोर्टर को अपना तारणहार बनाया हुआ है, वहीं कोई प्राइम टाइम में मेट्रो एफआईआर दिखा रहा है. सामाजिक सरोकारों से जिस तरह इन चैनल वालों ने मुंह चुराया हुआ है, उसे देखकर कोफ़्त होती है. नैतिक मूल्यों से तो वैसे भी इनका कोई लेना-देना कभी रहा नहीं है. वो सारा ठेका दूरदर्शन का था, जो उसके पतन के साथ ही काल-कवलित हो गया है.
न्यूज़ चैनलों की इस होड़ का ताज़ा शिकार दिल्ली का एक व्यक्ति हुआ है, अपनी पत्नी सहित. इस व्यक्ति पर उसी की भतिजी ने बलात्कार का आरोप लगाया था. बलात्कार इन चैनलों के लिये सबसे बिकाऊ और मसालेदार खबर होती है, सो टूट पड़े सारे चैनल वाले इस खबर पर. इतना हो-हल्ला मचाया कि मारे शर्मिंदगी के उस व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली. अपने अन्तिम पत्र में उस व्यक्ति ने लिखा है कि वह किसी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के काबिल ही नहीं है, इसलिये बलात्कार का तो प्रश्न ही नहीं उठता.
इस व्यक्ति ने अपने दो भाइयों की मौत के बाद उनकी पत्नियों को अपनी पत्नी का दर्जा दिया हुआ था और उनके चार बच्चों का वह सहारा था.
इस मामले में सच-झूठ से पर्दा तो शायद जांच के बाद उठ जाये मगर उन चार बच्चों का जिम्मा कौन लेगा जो अनाथ हो गये हैं. क्या मीडिया उनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी उठाने को तैयार है? क्या इन चैनल वालों के लिये कोई आचार-संहिता नहीं होनी चाहिये?
यह ठीक है कि गंदगी को ढकने से गंदगी दूर नहीं होती, मगर गंदगी को सजाकर परोसना भी तो उचित नहीं है. अगर चैनल वाले अपरोक्ष रूप से अपराध को महिमा-मंडित करने की जगह, उसे सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने की जगह संयत शब्दों में उसकी भयावहता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करें तो ज्यादा बेहतर होगा. अपराध और बलात्कार को बिकाऊ समझने का रवैया जब तक ये चैनल वाले नहीं छोड़ेंगे, उनके लिये अपने दायित्वों का सही निर्वाह करना मुश्किल है.