सोमवार, सितंबर 26, 2005

दुखिया दास कबीर

मोह नहीं या बैर नहीं पर बांटे सबकी पीर
बीच-बज़ार आ खड़ा हुआ, दुखिया दास कबीर.


कर सकता है कोई सवाल कि क्यों आ खड़ा हुआ कबीर, क्या हमने पीले चावल भेज कर न्यौता दिया था? फ़िर क्यों चला आया भाई कबीरे, बिल्कुल उसी स्टाइल में जैसे हिन्दी फिल्मों की हीरोइन गाती हुई चली आती है - आना ही पड़ा सजना, जालिम थी दिल की लगी.


अब जिसे जो भी कहना है, कहे, मगर जब दुखिया दास कबीर आ ही गया है तो जल्दी जाने वाला नहीं है. यहां बैठ कर कपास औटेगा और अच्छा-बुरा जो भी दिखाई देगा, समझ में आयेगा, आप लोगों को सुनाता भी रहेगा.


बात अपनी प्यारी हिन्दी से शुरू करें -
भारत में हिन्दी की दशा सचमुच बड़ी बुरी है.
हालांकि हिन्दी पढ़ने और लिखने वालों की कमी नहीं है, मगर यह संख्या लगातार कम होती जा रही है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हिन्दी का रोज़गार से सम्बन्ध अब लगभग नहीं के बराबर रह गया है. अब हिन्दी आपकी मज़बूरी हो सकती है या आपका प्यार हो सकती है मगर आपकी जीविका का आधार नहीं हो सकती. अच्छी नौकरी के लिये अब अंग्रेजी आना अनिवार्य हो गयी है. सब इस बात को समझ चुके हैं इसलिये अपने बच्चों को कोई हिन्दी माध्यम से नहीं पढ़ाना चाहता है.

मगर एक बात और है. नेट पर हिन्दी चिट्ठों की भरमार और उनमें बढ़िया हिन्दी का प्रयोग देख कर दिल में तसल्ली भी होती है कि सब कुछ खत्म नहीं हो गया है. उम्मीद है सभी चिट्ठा-बन्धु जितनी बढ़िया हिन्दी का प्रयोग स्वयं करते हैं, उस विरासत को अपने बच्चों को देने के प्रति भी उतने ही जागरुक होंगे. संख्या चाहे कम हो मगर ऎसे लोगों के कारण ही आश्वस्त है यह दुखिया दास कबीर.

शुक्रवार, सितंबर 23, 2005

आयेगा कौन?

पतझड़ है
पीले पत्ते हैं
गर्म हवा है
धूप बड़ी है

होठों पर
मुस्कान कुटिल
लेकर यह
तक़दीर खड़ी है

सहमा-सा
है एक गीत
इसे संग मेरे
अब गायेगा कौन?

जीवन के इस
मोड़ पे तन्हा
खड़ा हूं, संग
आयेगा कौन?

- पराग

गुरुवार, सितंबर 22, 2005

उम्र भर का साथ था
अजनबी फिर भी रहे.

माशूका है मौत लेकिन
ज़िंदगी फिर भी रहे.

आंसुओं की हो झड़ी पर
एक हंसी फिर भी रहे.

रात-दिन तुझको मैं देखूं
तिश्नगी फिर भी रहे.

- पराग

बुधवार, सितंबर 14, 2005

बीच गमों के हो इक आशा
जीवन है इतना सीधा-सा.

दुख लाखों भी सह लेंगे हम
प्यार करे कोई थोड़ा-सा.